Columnist

धर्म, ठेकेदार, और ईश्वर का फासला

सुनील कुमार
इन दिनों खबरों में धर्म के नाम पर कहीं बहाया जा रहा खून दिखता है, तो कहीं खून बहाने की बातें सुनाई पड़ती हैं. इराक और सीरिया जैसी जगहों से तस्वीरें आ रही हैं कि ईश्वर का नाम लेकर किस तरह बच्चों के हाथों से विरोधियों को थोक में गोलियों से मरवाया जा रहा है. सीरिया में जिस तरह इस्लामिक स्टेट के आतंकी लोगों को थोक में मार रहे हैं, और मारने के नए-नए अधिक से अधिक खूंखार तौर-तरीके रोज ईजाद कर रहे हैं, वह पढ़ पाना भी भयानक है, उसकी तस्वीरें छापना मुमकिन भी नहीं है. साथ ही ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि किस तरह ब्रिटेन में पैदा और वहीं पर पली-बढ़ीं टीनएजर किशोरियां अपना घर, स्कूल, देश, सब कुछ छोड़कर सिर्फ मजहबी आतंक का साथ देने के लिए, जेहादी-दुल्हनें बनने के लिए सीरिया पहुंच रही हैं, और अभी जब ट्यूनीशिया में दर्जनों ब्रिटिश सैलानियों को समंदर किनारे थोक में कत्ल किया गया, तो ये लड़कियां किस तरह इंटरनेट पर हंस-हंसकर मजा लेकर उसकी चर्चा कर रही हैं, और लोटपोट हो रही हैं.

दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में दूसरे धर्म के लोग हिंसा की बातें करते थक नहीं रहे हैं. कुल मिलाकर तस्वीर यह बनती है कि धर्म एक बिल्कुल ही बिना बर्दाश्त वाला, और हिंसक माध्यम बन गया है, जिसके बारे में यह दावा किया जाता है, और यह सोचा जाता है कि वह ईश्वर तक पहुंचने का एक रास्ता है. जो लोग धर्म का नाम लेकर तरह-तरह की हिंसा कर रहे हैं और हिंसक बातें कर रहे हैं, वे लोग धर्मगुरू से लेकर संत और मुल्ला तक कहलाते हैं, और उनकी हिंसा पर ईश्वर का कोई काबू नहीं है, धर्म की कोई व्यवस्था इनके हिंसा को रोकती नहीं है.

लेकिन यह कोई नई बात नहीं है. हिन्दुस्तान में सदियों से लोगों ने एक धर्म के लोगों के सिर काटकर लाने पर दूसरे धर्म के लोगों द्वारा स्वर्ण मुद्रा का पुरस्कार देखा हुआ है. कई हमलावर ऐसे रहे जो हिन्दुस्तान में अपने धर्म को लेकर आए, और फिर उसे फैलाने के लिए फौजी हिंसा से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी की कारोबारी हिंसा तक की, और धर्म ने कभी इसे नहीं रोका. धर्म किसी हिंसा को रोकने वाला रहता भी नहीं है, जब हिटलर ने लाखों बेकसूर यहूदियों को मारा, तो उसे चर्च ने रोकने की कोशिश भी नहीं की. जब भारत के स्वर्ण मंदिर के भीतर से तथाकथित संत, भिंडरावाले के आतंकी बाहर निकलते थे, और हिन्दू, सिक्ख का भेदभाव करते हुए गिन-गिनकर हिन्दुओं को मारते थे, तो सिक्ख पंथ के बड़े-बड़े मुखिया चुप थे, और किसी ने भिंडरावाले के खून-खराबे को रोका नहीं था.

इसी तरह आज जब हिन्दुस्तान में जगह-जगह मुस्लिम आतंकी हिंसा की वारदातें होती हैं, हिन्दू आतंकी हिंसा में मौतें होती हैं, तो इन दोनों धर्मों के कोई धर्मगुरू उसके खिलाफ मुंह खोलने को राजी नहीं होते. यह कुछ वैसा ही है कि जब ईश्वर के नाम पर शपथ लेने वाले अमरीका के राष्ट्रपति की अगुवाई में ईसाई बहुतायत वाले पश्चिमी देशों के हमले अफगानिस्तान और इराक पर होते हैं, तो चर्च उससे उसी तरह मुंह मोड़े रहता है, जिस तरह वह किसी वेश्या या कंडोम से मुंह मोड़ लेता है.

आज इस पर चर्चा जरूरी इसलिए है कि बहुत से लोग किसी धर्म के प्रमुख लोगों को उस धर्म की ही एक शक्ल मान लेते हैं. और इससे भी अधिक लोग उस धर्म को उस ईश्वर की एक शक्ल मान लेते हैं, जिस ईश्वर की बात वह धर्म करता है. इन तीनों बातों के बीच में एक फर्क करने की जरूरत है. कोई भी धर्मगुरू, या संत-साधू, मुल्ला-पादरी अपने धर्म के प्रतिनिधि होने के बजाय, अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩे वाले अधिक होते हैं. ईश्वर की जो धारणा रहती है, वह उनकी प्राथमिकताओं में सबसे आखिर में आती हैं. जो सिक्ख पंथ गुरूनानक देव को मानता है, उस पंथ के नाम पर हिंसा करने वाले लोगों को रोकने और टोकने की उसने सोची भी नहीं, जबकि गुरूनानक देव ने अपने ग्रंथ में तमाम हिन्दू और मुस्लिम, और हिन्दुओं में भी दलित संतों तक की बानी को भरपूर जगह दी है.

यह शायद अपने किस्म का अकेला धर्मग्रंथ है, जो कि दूसरे धर्मों को इतने सम्मान का दर्जा देता है, और अभी-अभी कहीं छपा हुआ यह भी पढऩे मिला कि किस तरह एक गुरुद्वारे के शिलान्यास के लिए गुरूनानक देव ने एक मुस्लिम संत को बुलाया था.

जो लोग यह मानकर चलते हैं कि धर्म की नसीहतें तो अच्छी हैं, ये गलतियां तो धर्म को मानने वाले लोगों की हैं, और उनकी गलतियों के लिए धर्म को तोहमत नहीं दी जा सकती, वे ही तमाम लोग ऐसी ही गलतियां करने वालों को धर्म का ठेकेदार मानकर उनके पीछे भेड़ों के रेवड़ की तरह चलते हैं. फिर धर्म का जो ढांचा बनाया गया है, उसमें अलग-अलग वक्त पर दुनिया पर राज करने वाले राजाओं से लेकर आतंकियों तक ने अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की है, और इस्लाम की एक व्याख्या सूफियों की हुई है, जो कि मोहब्बत के सिवाय दूसरी बात नहीं करते, और इसी इस्लाम की एक दूसरी व्याख्या आतंकियों की हुई है, जो कि खून बहाने के सिवाय दूसरी बात नहीं करते.

हिन्दुस्तान की संत परंपरा में कितने ही ऐसे हिन्दू और मुस्लिम संत हुए, जिन्होंने दोनों धर्मों के ईश्वर की धारणाओं को एक साथ लेकर कितना-कितना नहीं लिखा है. जो लोग इस्लाम को मूर्तिपूजा-विरोधी मानते हैं, उसी इस्लाम को मानने वाले संतों ने कृष्ण से लेकर राम तक के गुणगान करने में कोई दुविधा महसूस नहीं की. इन दोनों ही धर्मों के अनगिनत संत ऐसे रहे, जिन्होंने दोनों ही धर्मों के किरदारों को लेकर उनसे मोहब्बत की अनगिनत बातें लिखी हैं.

लेकिन अब हकीकत यह है कि धर्म के मौजूदा ठेकेदारों, और धर्म की मौजूदा दुकानों को धर्म से अलग करके देखना पड़ेगा. जिस तरह एक कारोबार की पहली और आखिरी दिलचस्पी कमाई होती है, उसी तरह धर्म की ठेकेदारी की पहली और आखिरी दिलचस्पी ठेका जारी रहने की होती है. इसलिए आज जो धर्मस्थल हैं, उन्हें धर्म से जोड़कर देखना भी गैरजरूरी हो गया. धर्म की जो सोच हो सकती है, आज धर्मस्थलों का कारोबार उसके ठीक खिलाफ हो गया है. इसी तरह धर्म की जो व्याख्या आज प्रचलन में आ रही है, या कि जिस तरह की व्याख्या की जा रही है, वह धर्म की बुनियादी सोच से अलग है. और फिर कुछ फलसफे की बात की जाए, तो धर्म को, जिस तरह के धर्म को, इस तरह के धर्म को, जिस तरह ईश्वर तक पहुंचने का साधन और माध्यम मान लिया गया है, वह भी अपने आपमें गलत है.

आज धर्मों की जो प्रचलित हालत है, उस पर चलते हुए लोग नर्क, या जहन्नुम तो पहुंच सकते हैं, खुद धर्म की धारणा के मुताबिक जो जगह स्वर्ग या जन्नत है, वहां तक नहीं पहुंच सकते.

आज दुनिया में ईश्वर को पाखंड और आडंबर से भरे हुए रीति-रिवाजों से खुश होने वाला मान लिया गया है. दुनिया में लोगों को ओढऩे को नसीब नहीं है, और ईश्वर को तरह-तरह की चादरें चढ़ाई जाती हैं, दुनिया में बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं, और ईश्वर पर रात-दिन दूध बहाया जा रहा है, लोग बेघर हैं, और ईश्वर के लिए आसमान छूती इमारतें बन रही हैं, मजदूर-किसान रात-दिन काम करने के बाद भी खुदकुशी को बेबस हैं, और धर्म के नाम पर धंधा करते लोगों के बदन उनकी नीयत की तरह चारों तरफ फैलते-बिखरते जा रहे हैं.

क्या कोई ऐसा ईश्वर हो सकता है, जो कि दुनिया को दर्द देते हुए, खुद अपने गुणगान को सुनकर इतना खुश होता हो? इसलिए धर्म का पाखंड, और धर्म की पूरी सोच आज अगर कोई बात सबसे अधिक जोरों से साबित करती है तो वह ईश्वर के न होने की ही है. आज अकेले नास्तिक ही ईश्वर की धारणा को मजबूत करते दिखते हैं. अब बस नास्तिक ही ऐसे हैं जो कि अपने किसी गलत काम के लिए ईश्वर के नाम का सहारा नहीं लेते, और उनके हाथ अगर लहू से सने हुए हैं, तो उन्हें धोने के लिए वे किसी धर्मस्थल पर नहीं जाते. उन्हें प्रायश्चित करने और पाप-मुक्त होने की सहूलियत नहीं है, और न ही ईश्वर को रिश्वत दिखाकर अपने हक से अधिक कुछ मांगने की उनको छूट है.

इसलिए नास्तिक ही ऐसे हैं जो कि अपने काम अच्छे रखने के लिए मजबूर हैं, और बुरे कामों की सजा भुगतने के लिए तैयार हैं. दूसरी तरफ आस्तिक अपने तौर-तरीकों से लोगों को इस बात पर सहमत करते दिखते हैं, कि या तो उनका ईश्वर है ही नहीं, या फिर उसका जनकल्याण से कोई लेना-देना नहीं है.

इस पर लोग अपने-अपने स्तर पर सोचकर देखें.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!