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आतंक का दूसरा नाम

सरकारें लोगों से विकास परियोजनाओं पर सवाल उठाने का अधिकार छिन रही हैं. बुनियादी ढांचे वाली परियोजनाओं का जो लोग विरोध करते हैं, उन्हें सरकारें कभी ‘विकास विरोधी’ तो कभी ‘राष्ट्र विरोधी’ तो कभी ‘शहरी नक्सली’ तो कभी ‘आतंकी’ कहती आई हैं. 6 जुलाई को केंद्रीय वित्त और पोत परिवहन राज्य मंत्री पी. राधाकृष्णन ने सरकारी परियोजनाओं का विरोध करने वालों को आतंकी कहा. उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों को आतंकवादी इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि ये जनता और विकास के खिलाफ हैं.

संभवतः मंत्री महोदय को आतंकवादी शब्द का शब्दकोश में जो मतलब दिया हुआ है, उसका ज्ञान नहीं है. इसका मतलब वैसा व्यक्ति है जो आम लोगों के खिलाफ गैरकानूनी हिंसा करके कोई राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना चाहता है. उन्हें शायद याद नहीं कि तमिलनाडु में हाल के दिनों में हिंसा करने का काम सरकार ने ही किया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण 22 मई को स्टरलाइट काॅपर के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 13 लोगों का पुलिस गोलीबारी में मारा जाना है. इसके बावजूद राज्य सरकार ने सैंकड़ो प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करके उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मुकदमा दर्ज किया. प्रदूषण के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोग आतंकवादी कैसे हो गए? कैसे आम लोगों के खिलाफ सरकार द्वारा बल प्रयोग करना आतंकवाद नहीं है?

वास्तव में तमिलनाडु एक ऐसा उदाहरण बन गया है जहां सरकारी परियोजनाओं के खिलाफ आवाज उठाने वालों की आवाज कुचल दी जाती है. स्टरलाइट मामले में प्रदर्शनकारियों को ही सरकार ने गिरफ्तार नहीं किया बल्कि उनके वकीलों को भी जेल में डाल दिया. एक जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता को भी कैद किया और पत्रकारों तक को गिरफ्तार करने की कोशिश की. जिन चैनलों ने ऐसे प्रदर्शनों को दिखाया वैसे 11 चैनलों को सरकारी केबल नेटवर्क ने बंद कर दिया. इसी नेटवर्क के जरिए 85 लाख ग्रामीण परिवारों में टीवी देखा जाता है. चेन्नई-सेलम हरित गलियारे पर भी सवाल उठ रहे हैं. केंद्र सरकार के पैसे से बन रही इस परियोजना से 159 गांव और उनकी फसल वाली जमीन प्रभावित हो रही है. जंगल भी प्रभावित हो रहा है. हजारों परिवारों को विस्थापन झेलना पड़ेगा.

इसी तरह का रवैया दूसरे राज्य सरकारों का भी दिखता है. यह देखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चहेती बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों से महाराष्ट्र सरकार कैसे निपटेगी. दिसंबर, 2018 तक जमीन अधिग्रहण किया जाना है. लेकिन लगता है तब तक यह काम हो नहीं पाएगा.

ज्यादातर सरकारें उन लोगों को बर्दाश्त नहीं कर पातीं जो उसकी परियोजनाओं पर सवाल उठाते हैं. नर्मदा बचाओ आंदोलन के जरिए सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ अभियान छेड़ने से विश्व बैंक को अपनी आर्थिक मदद पर फिर से विचार करने को बाध्य होना पड़ा था. विश्व बैंक ने 1992 में पहली बार खुद के द्वारा फंडिंग वाली किसी परियोजना का अध्ययन कराया. इसके बाद न सिर्फ विश्व बैंक खुद इस परियोजना से बाहर हुआ बल्कि बांधों पर विश्व आयोग का गठन भी किया ताकि ऐसी परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन करके उन्हें भविष्य की नीतियों में शामिल किया जा सके. इस बांध का काम तो नहीं रुका लेकिन आंदोलन की कोशिशों से लोगों में जागरूकता जरूर आई.

परियोजना के लिए स्थान निर्धारण में स्थानीय लोगों की भूमिका का अहसास 2013 में ओडिशा में डोंगरिया कोंध समुदाय के लोगों ने कराया था. नियमगिरी में इन लोगों ने वनाधिकार कानून, 2006 के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए वेदांता समूह के बॉक्साइट परियोजना को खारिज कर दिया था. उनके आंदोलन को पूरी दुनिया में प्रेरक माना गया. इसके बावजूद पिछले साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दावा किया कि वहां प्रदर्शन की अगुवाई करने वाली नियमगिरी सुरक्षा समिति का माओवादियों से संबंध है. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का यह रवैया चिंताजनक है. क्योंकि ये सरकारें यह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं कि लोग अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूक हैं और सवाल पूछने के अधिकार का भी उन्हें अहसास है.

चिंता की बात यह भी है कि नई एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक जैसी नई एजेंसियों को इन चिंताओं से कोई अवगत नहीं करा रहा है. इन एजेंसियों से आर्थिक सहयोग की उम्मीद में सरकारें पहले के नियमों में और ढील दे रही हैं. इसके अलावा जो भी विरोध कर रहा है, उसे ‘आतंकवादी’ ठहराकर सरकारी दमन का रास्ता खोल रही हैं.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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