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ताकत का इस्तेमाल

सुनील कुमार | छत्तीसगढ़ : ट्विटर पर दुनिया की तमाम किस्म की बातों का सैलाब रहता है, बहुत से समाचार रहते हैं, बहुत से विचार रहते हैं. यह शायद अकेला ऐसा इंटरनेट-प्लेटफॉर्म है जिस पर कोई बोरियत नहीं हो सकती क्योंकि इसे डिजाइन ऐसा किया गया है कि अनजाने लोगों के ट्वीट भी आते रहते हैं, दिखते रहते हैं. अपने आपको रंगा सियार कहने वाले एक आदमी ने ट्वीट किया है कि वह सात बरस बाद टीवी की खबरों का एक चैनल देखने के लिए उस पर गया. और उसने एक लिस्ट बनाई ऐसे विज्ञापनदाताओं की जो कि लोगों के बीच नफरत फैलाने वाले इस चैनल को इश्तहार देते हैं. और इस चैनल के नाम के साथ उसने यह लिखा कि आज के बाद इन कंपनियों को उससे एक धेले का भी कारोबार नहीं मिलेगा.

एक वक्त था जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में दुनिया की बहुत सी कंपनियां हिटलर का साथ दे रही थीं, क्योंकि उन्हें हिटलर ने अपने कारोबार का भविष्य दिख रहा था. इन कंपनियों में आज के भी कई नामी-गिरामी ब्रांड थे, जो आज भी बाजार में हैं, और गैरजिम्मेदार ग्राहकों की मेहरबानी से आज भी चल रहे हैं. छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर सहित गुजरात के कई शहरों में हिटलर नाम की दुकानें खुली हुई हैं, और उनके कारोबारियों का यह गजब का हौसला है कि वे दुनिया के सबसे बड़े हत्यारे के नाम पर गर्व से अपनी दुकान चला रहे हैं.

दूसरी गजब की बात यह है कि इन शहरों में लोग ऐसी दुकानों पर कोई प्रदर्शन भी जरूरी नहीं समझते, इनका विरोध भी नहीं करते, क्योंकि उनका शायद यह मानना है कि हिटलर ने जिनको मारा था, वे यहूदी थे, और वे न तो यहूदी हैं, और न ही उन पर हिटलर का खतरा है. ऐसा सोचने वालों को यह नहीं मालूम है कि महज जंगली जानवर ही इंसानखोर नहीं होते, इंसानों में भी कुछ लोग मानवभक्षी होते हैं, और उन्हें आज अगर दूसरे धर्म के दुश्मन नहीं मिलते, तो फिर वे धीरे-धीरे अपने धर्म के भीतर के दुश्मन भी तलाशने लगते हैं, और उनको मारने लगते हैं.

अब पिछली बात पर लौटें कि एक जिम्मेदार आदमी एक नफरतजीवी और हिंसक टीवी चैनल के इश्तहारों को देखकर उन सामानों के बहिष्कार का अपना फैसला ट्विटर पर पोस्ट कर रहा है. बरसों पहले जब अमरीका ने इराक पर हमला किया था और लाखों लोगों को मार डाला था, तब इसी कॉलम में मैंने अमरीकी सामानों के तब तक बहिष्कार करने की बात लिखी थी जब तक उनके बिना काम चलाया जा सके. लेकिन जिन मुस्लिम देशों पर अमरीकी हमला हुआ था, उन देशों के साथी मुस्लिम देशों ने भी अमरीकी सामानों के बहिष्कार की समझदारी नहीं दिखाई.

ट्वीटर की ताकत
ट्वीटर की ताकत
दरअसल आज की कारोबारी दुनिया में जब तक किसी देश की कमाई के पेट पर लात न पड़े, उसकी आंखें खुलती नहीं हैं. दुनिया में सबसे बड़ा हत्यारा कारखाना जब भोपाल में हजारों लोगों को मार चुका था, उसके बाद भी उस कंपनी की बनाई हुई एवरेडी बैटरी के बहिष्कार की बात भी कहीं नहीं उठी. इसी का नतीजा था कि ऐसी कंपनियों को इंसानी जिंदगियों की कोई परवाह नहीं रहती.

लेकिन बात महज कारोबार के बहिष्कार की नहीं है. समाज के भीतर और भी कई मुद्दों पर बहिष्कार एक हथियार की तरह कारगर हो सकता है. अभी छत्तीसगढ़ में एक जाति के लोगों ने प्रदेश के एक बड़े नेता के बहिष्कार की घोषणा की है क्योंकि उसके एक करीबी रिश्तेदार ने अपनी कार से कुचलकर उस जाति के दो लोगों को मार डाला, और उन लोगों का यह मानना है कि राजनीतिक दबाव के चलते हत्यारे ड्राइवर पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही.

ऐसी तरह-तरह की नौबतें जिंदगी में सामने आती हैं, जैसे किसी परिवार में किसी बहू को जलाकर मार डाला जाता है, और उस परिवार के बहिष्कार के बजाय बहुत से लोग अपनी बेटी उस परिवार में भेजने के लिए उतावले हो जाते हैं. किसी दूसरे परिवार में कोई आदमी बलात्कार करते पकड़ाता है, लेकिन वैसे परिवार का भी कोई बहिष्कार नहीं होता.

राजनीति में बहुत से लोग बड़े हिंसक बातें करते हैं, और बहुत से नेता लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ बलात्कारी-जुबान से गंदगी उगलते हैं. होना तो यह चाहिए कि ऐसे लोगों का सामाजिक और सार्वजनिक बहिष्कार हो, लेकिन इतनी जागरूकता लोगों में रहती नहीं है, और दूसरी तरफ बकवास करने वाले लोग, हिंसा और नफरत फैलाने वाले लोग इतने ताकतवर रहते हैं कि उन्हें बचाने के लिए ढेरों चापलूस-दलाल आ खड़े होते हैं.

आज मीडिया इतना बड़ा कारोबार हो गया है कि वह खुद जिंदा रहने के लिए अनगिनत दूसरे कारोबारों का मोहताज रहता है. इश्तहारों के बिना किसी भी किस्म का मीडिया पल भर न चले. इसलिए जो लोग सामाजिक न्याय और बाकी किस्म के इंसाफ की फिक्र करते हैं, जिनकी नजरों में जम्हूरियत और इंसानियत की कीमत है, उनको यह भी देखना चाहिए कि मीडिया का जो हिस्सा लगातार नफरत और हिंसा फैलाने में लगे रहता है, उस मीडिया का सीधा-सीधा बहिष्कार भी करें, और उस मीडिया को इश्तहारों से मदद करने वाली कंपनियों के सामान का भी बहिष्कार करें.

ऐसा करना मीडिया और विज्ञापनदाता, दोनों की आंख खोलने में कारगर तरीका हो सकता है. सामूहिक बहिष्कार एक बड़ी ताकत रहती है, और एक जिम्मेदार और जागरूक समाज इस ताकत का इस्तेमाल करता ही है.
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार औऱ शाम के अखबार छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.

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