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यूपी के मतदाता के मन में क्या है?

नई दिल्ली | विशेष संवाददाता: लाख टके का सवाल यूपी के मतदाता के मन में आखिरकार क्या है? यह सवाल, महाराष्ट्र के निकाय चुनाव के बाद और प्रासंगिक हो गया है. इस सवाल के प्रासंगिक होने के पीछे एक कारण और है क्योंकि इसे 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमी फायनल माना जा रहा है. अब तक राजनीति की पकड़ रखने वाले कई जानकार दावा कर रहे थे कि नोटबंदी का बुरा असर आने वाले चुनावों में देखा जा सकेगा. लेकिन महाराष्ट्र के निकाय चुनाव के नतीजे जो भाजपा के पक्ष में गये हैं से कई जानकार हैरत में पड़ गये हैं. कहीं यूपी के मतदाताओं के मन में भी महाराष्ट्र के मतदाताओं के समान विचार हो तो भारतीय राजनीति में भाजपा लंबे समय तक शीर्ष पर बने रहने जा रही है.

यूपी का चुनाव भाजपा ही नहीं कांग्रेस, समाजवादी पार्टी तथा बसपा के लिये भी महत्वपूर्ण है. यह माना जा रहा है कि यूपी में यदि भाजपा को नहीं रोका जा सका तो 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उसे नहीं रोका जा सकेगा. भाजपा की कोशिश जहां यूपी में 2014 दोहराने की है वहीं कांग्रेस, समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है. समाजवादी पार्टी के नये मुखिया अखिलेश यादव के लिये भी यूपी में फिर से सत्ता में आना जरूरी है अन्यथा पार्टी का विरोधी धड़ा उन पर हावी हो जायेगा.

यूपी चुनाव की घोषणा होने के पहले यूपी भाजपा के संगठन से जो खबरे छनकर मीडिया तक आ रही थी उसके अनुसार भाजपा सांसदों ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से साफ कर दिया था कि यदि छोटे नोट जल्द मुहैय्या नहीं कराये गये तो भाजपा चुनाव हार भी सकती है. उसी के बाद इन कयासों को बल मिला था कि भाजपा यूपी का चुनाव हारने जा रही है. इस बीच समाजवादी परिवार में मचे घमासान के बाद जिस तरह से अखिलेश यादव राजनीति में ऊभर कर आये उससे भी यही संकेत मिल रहा था कि भाजपा के लिये यूपी का रण आसान न होगा.

कम से कम महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम से तो यही जाहिर होता है कि वहां की जनता ने नोटबंदी तथा सर्जिकल स्ट्राइक को सकारात्मक रूप में लिया है. यदि जनता नोटबंदी से परेशान थी तो उसने निकाय चुनाव में भाजपा को वोट क्यों दिया? हर कोई सोशल मीडिया में अपने विचार व्यक्त नहीं करता है. हर कोई अपनी मन की बात नहीं कहता है. ज्यादातर चुप ही रहते हैं परन्तु मतदान के समय उसे ही वोट देते हैं जिसे वे सत्ता में देखना चाहते हैं. यह सही है कि हाल-फिलहाल में 2014 के लोकसभा चुनाव के समान ‘मोदी लहर’ नहीं है. नोटबंदी के समय भाजपा के खिलाफ लोगों का गुस्सा सड़कों पर दिख रहा था. लेकिन महाराष्ट्र चुनाव आते-आते क्या वह शांत पड़ गया है.

कहा जाता है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर करता है. इसी तरह से क्या नोटबंदी के खिलाफ जनता का गुस्सा भी अस्थाई प्रकृति का है. महाराष्ट्र के निकाय चुनाव के नतीजे तो यही ऐलान कर रहें हैं. या यूपी की स्थिति थोड़ी अलग है. फिलहाल इसका जवाब पाने के लिये 11 मार्च तक इंतजार करने के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं है.

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