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यह अनंत कवि-कथाकार

कनक तिवारी | फेसबुक
जन्मदिन विशेष
विनोदकुमार शुक्ल कविता के शिल्प में एक पंक्ति और दूसरी पंक्ति, एक कदम और दूसरे कदम, एक क्षण और दूसरे क्षण के बीच ही कविता को अनहद कहते चलते हैं. इस संग्रह की भी कविताओं में बेहद सीधे सादे शब्दों की बेचारगी में विरोधाभास, विपर्यय, दुहराव और श्लेष-यमक की छटाओं के बावजूद विनोद जी शब्दार्थ के कवि तो हैं नहीं. शब्द त्वचा, पोशाक या केंचुल की तरह उस अनकथ के आवरण बनते बिगड़ते रहते हैं जो कविता का दिगंबर निःसंग सच है. कुछ असंभावित और अब तक अपरिभाषित मानवीय स्थितियां हैं जो सहज संभावनाओं की तरह इस कवि के प्रयोगों में साकार हुई हैं.

विनोद जी आप्त या सूत्र वाक्यों के रचयिता कतई नहीं हैं लेकिन एक गहरा सूफियाना, उनकी कविता का उत्स है.

मजबूत कविता का अक्स है. विनोदकुमार शुक्ल आत्मा की कसक के कवि हैं. वे उतनी ही करुणा उकेर देते हैं. विनोदकुमार शुक्ल होने की यह भी एक अन्योक्ति है, अर्थ भी.

विनोदकुमार शुक्ल गहरे आदिवास के बोधमय कवि होने के बावजूद इस पचड़े में नहीं हैं कि उनकी कुछ सामाजिक प्रतिबद्धताएं भी हैं. वे अपने सोच और संवेदना में शायद सबसे ज्यादा आदिवासी सरोकारों के कवि हैं. दलित लेखन का मुखौटा ओढ़े बिना यह कवि आदिम जीवन के उन बिम्बों को समुद्र में रेत में पड़ी सीपियों की तरह सागर के गहरे एकांत क्षणों में एकत्रित करता है.

विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ना कविता के टॉर्च की रोशनी में अपने घर, मन बल्कि अपनों में भी वह खो चुका ढूंढ़ना है जिसे हम अन्यथा भी ढूंढ़ सकते थे बशर्ते वैसा ही टॉर्च हमारे पास होता.

कविता जीवन में बिखरी पड़ी होती है कई जगह बहुलांश में तो कई जगह ढूंढ़ने उनकी बहुत कम कविताएं हैं जिनको पढ़ने पर विनोद कुमार शुक्ल को ढूंढ़ा नहीं जा सकता. दोनों में गहरी परस्पर सहमति और आकुलता है. यह कवि कविता में तल्लीनता का सीधा उदाहरण है. उसमें दुधमुंहे बच्चे की गंध ममता को ढूंढ़ती है.

विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ते हुए किसी तरह के छद्म का अहसास नहीं होता. विनोद कुमार शुक्ल अक्सर अपनी कविताओं में या तो लौटते आते दिखते हैं अथवा कहीं निश्चित भाव भूमि पर खड़े होते या बढ़ते. यह कविता के शिल्प का सबसे बड़ा चमत्कार है.

विनोद कुमार शुक्ल की शैली की निजता समालोचना की उत्सुकता के केन्द्र में है. वे इक्कीसवीं सदी के कथाकार हैं. हमारी सदी के विग्रह, संताप, विसंगतियां और निश्चेष्टताएं भी उनके लेखन की पूंजी हैं, कच्चा माल हैं. विनोदजी ने बगावत के तेवर या समाज सुधार का मुखौटा लगाने की जरूरत नहीं समझी.

उनके आप्त वाक्य ‘सब कुछ होना बचा रहेगा‘ में मार्मिकता का शाश्वत है. यह अलग बात है कि उनकी रचनाओं के विदेशी अनुवाद हो रहे हैं, लेकिन यदि उनकी काव्य-संस्कृति इतर मुल्कों में स्थानापन्न की जा सके, तो मनुष्य के पक्ष में बोलने की जिद्दी कोशिश करता हुआ एक और कवि उनके भी खाते में आ जायेगा. यह मध्यवर्ग के विशाद का अजीबोगरीब कवि तल्खी तक का आदर करता है.

बहुत सी कविताएं हैं जिनमें विनोद कुमार शुक्ल यथास्थितिवादी दिखाई देते हैं कि कहीं कुछ बदलने वाला नहीं है. आदिम और मौजूदा सच यही है कि भविष्य एक पुनरावृत्ति भर है. विनोद जी के सपनों का भविष्य वर्तमान का विस्तार ही है. वही चेहरा मोहरा, वही कद और हुलिया श्रृंगार लेकिन बदला हुआ. मनुष्य संस्कृति का श्रृंगार भी तो है. भाषा उस श्रृंगार का महत्वपूर्ण अवयव है. इसलिए विनोद कुमार शुक्ल का ऐसी भाषा रचने का हठ-योग है जो उनके लेखन का सबसे प्राणवान तत्व है.

भाषा उनके लिए साध्य या साधन होने के बदले वह बहता हुआ आयाम है जिसमें से वे अपने लिए जरूरत पड़ने पर शब्द बीनते हैं. उपेक्षितों के श्रृंगार के लिए कई उपेक्षित शब्द सहसा विनोद कुमार शुक्ल की कलम के स्टूडियो से गुजर कर कलाकारों की तरह अभिनय करते हैं. शब्द केवल अर्थ में रूपांतरित नहीं होते. अर्थ के परे एक ऐसी संसूचना होती है, जहां शब्द पाठक के अंतस की पूंजी बन जाते हैं.

कवि विनोद कुमार शुक्ल की दिक्कत और नीयत यही है कि उनके पाठक बनने के लिए आदिम वृत्तियों की पाठशाला के सबक को याद रखना जरूरी है. घर, कस्बा, मध्यवर्ग, आदिवास, फिर कुछ स्थानों और व्यक्तियों के नाम उन ईंटों की तरह हैं जिनसे एक कलात्मक कविता-गृह का रच जाना सुनिश्चित हुआ है. विनोद कुमार शुक्ल भौतिक पारिवारिक या नगरीय सीमा की समकालीनता में कैद नहीं हैं.

असल में विनोद कुमार शुक्ल की जो कमजोरी है, वही उनकी शक्ति है. उनका पूरा लेखन उनके तमाम चरित्र और खुद कवि एक साथ सजग, मितभाषी, आत्मविश्वासी लेकिन विशिष्ट होकर भी सामान्य दीखते हैं. छत्तीसगढ़ के पश्चिमी छोर पर बसा राजनांदगांव कस्बा खड़ी बोली हिन्दी के गद्य-संस्कार के एक सुप्रसिद्ध ‘मसिजीवी‘ लेखक और हिन्दी कविता की चट्टानी छाती को लोहे के इरादों की कलम से तोड़ने वाले मृत्योपरान्त ख्याति के कवि का नगर होने के बाद अब हिन्दी कविता के नये शीर्ष रचनाकार की कोख के रूप में ख्यातनाम हो रहा है. वे हमारी सदी के कवि लेखक हैं. उनमें हमारे समय और उसके परे जाकर लिखने की बुनियादी परिवर्तनशील और अंतिम संभावनाएं ढूंढ़नी होगी.

विनोद कुमार शुक्ल क्रियापद की यथास्थिति के बेजोड़ कवि हैं. उनमें जो घटित हो रहा है, उससे भी चकित हो उठने की एक अनोखी उत्कंठा है. वह विनोद कुमार शुक्ल को हमारे युग का पूर्वग्रह-रहित सबसे बड़ा गवाह बनाती है. विनोद जी में जबरिया सब कुछ बदल डालने का आग्रह नहीं है. कविता तो प्राणपद वायु की तरह जीवन को दुलराती रहती है. लोग ही कविता की जीवनी शक्ति से बेखबर हो उठें तो विनोद कुमार शुक्ल क्या करें.

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