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विश्वमानव में छत्तीसगढ़

कनक तिवारी | फेसबुक
विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था.यह छत्तीसगढ़ का सौभाग्य है कि विश्व संस्कृति के सबसे तेज तर्रार आधुनिक उन्नायक विवेकानन्द अपनी किशोरावस्था में दो वर्ष से अधिक रायपुर के बूढ़ापारा के दो मकानों में रहे थे. उनके पिता विश्वनाथ दत्त एक प्रसिद्ध वकील थे.

व्यावसायिक आवश्यकताओं के कारण उन्हें रायपुर आना पड़ा था. छत्तीसगढ़ को इस बात का श्रेय मिला कि उसने इस असाधारण चक्रवातिक साधु को राष्ट्रभाषा हिन्दी से परिचित कराया और छत्तीसगढ़ी बोली को उनसे अपनी स्थानीय विशेषताओं के साथ संपृक्त किय अपनी मातृभूमि कलकत्ता को छोड़कर विवेकानन्द तीन वर्षों से अधिक तक अमेरिका में और दो वर्षों से अधिक रायपुर में रहे.

रायपुर में उस समय बांग्ला भाषी होने के कारण उनकी शिक्षा के लिए स्कूल नहीं था. पिता ने व्यवसाय की व्यस्तता के बावजूद बेटे की शिक्षा का जिम्मा खुद ले लिया. पंडितों, मुल्लाओं, पादरियों और अन्य बुद्धिजीवी किस्म के प्रौढ़ व्यक्तियों से नरेन्द्र का दैनिक साक्षात्कार होता. विवेकानन्द के तर्कों का उनके पास जवाब अमूमन नहीं होता था.

नरेन्द्र ने विवेकानन्द बनने के पहले असाधारण साधु श्रीरामकृष्णदेव पर तर्कों की बौछार की थी. वह नैसर्गिक गुण छत्तीसगढ़ की धरती पर परवान चढ़ा था. इतिहास को इस संबंध में शोध करना होगा. विवेकानन्द की ख्याति अंततः हो गई. उसमें उनके 6 वर्षों का समय शामिल है जब एक गुमनाम साधु की तरह वे पूरे भारत में अपनी आत्मा को इस देश के गरीबों की जिन्दगियों से जोड़ने के लिए पाक साफ करते रहे.

देश के किसी भी अन्य मसीहा का छत्तीसगढ़ से इस तरह का लेना देना नहीं है. विवेकानन्द ने जीवन का उत्कर्ष 11 सितंबर 1893 को पा लिया था जब शिकागो धर्म सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि की हैसियत से भाषण कर चुके थे.

यदि देश के अन्य स्थानों में चलते फिरते विवेकानन्द को उस समय की लाचारी, बीमारी, भुखमरी और गरीबी एक झलक की तरह दिखी होगी तो यही अनुभूति उन्हें अपने छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान दो ढाई वर्षों तक हुई होगी. क्या यह नहीं कहा जा सकता कि उस वक्त के छत्तीसगढ़ के हालात भी बदतर ही रहे होंगे. जिस मानवीय करुणा का विवेकानन्द पूरे जीवन प्रचार करते रहे, उस ताले की चाबी उन्हें छत्तीसगढ़ से मिली होगी.

इतिहास यह जानता है कि सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह ने 1856 में ही अंग्रेजों से लोहा लिया था. नारायण सिंह को रायपुर के जयस्तंभ चौक पर फांसी पर लटका दिया गया था कि उन्होंने अंग्रेजी कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी प्रजा से कहा कि सेठियों के अनाज गोदामों को लूट ले. इतिहास जानना चाहेगा कि इस घटना के लगभग 18 वर्ष बाद रायपुर आए विवेकानन्द को क्या इस संबंध में जानकारी नहीं हुई होगी. इस संबंध में विवेकानन्द की ओर से कोई उल्लेख नहीं होना कई तरह के सवाल उपस्थित करता है.

विवेकानन्द ने गरीब आदमी की आर्थिक बेहतरी के लिए कड़ी भाषा में जेहाद की मुद्रा में लगभग बगावत की है. वह असाधारण सचेतन व्यक्ति अपने लेखन में छत्तीसगढ़ के अनुभवों को कैसे उल्लेखित नहीं कर पाया? एक महत्वपूर्ण कारण यह रहा होगा कि विवेकानन्द के रायपुर प्रवास के समय यह घटना किसी व्यक्ति की शहादत की तरह प्रचारित ही नहीं हो सकती थी. अंग्रेज की दृष्टि में नारायण सिंह एक कुख्यात अपराधी के अतिरिक्त और क्या रहे होंगे.

विवेकानन्द को सही परिप्रेक्ष्य में यह जानकारी हुई होती तो उनका उर्वर मस्तिष्क छत्तीसगढ़ की इस घटना को अपनी व्यापक मानवीय संवेदना के दायरे में जरूर ले लेता. जब इक्कीसवीं सदी का छत्तीसगढ़ निराशा की गठरी है. विवेकानन्द की उन्नीसवीं सदी का छत्तीसगढ़ गरीब की हाय के चीत्कार के अलावा क्या रहा होगा.

12/13 से 14/15 वर्ष की उम्र मनुष्य के निर्माण के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है. विवेकानन्द ने 6 वर्षों का भारत भ्रमण किया, तब उन्हें बार बार अपने उन किशोर दिनों की याद आई होगी. किसी न किसी कारण छत्तीसगढ़ की स्मृतियां उन्हें कुरेदती रही होंगी.

जिस भारत का चित्रण विवेकानन्द ने किया है उसमें कलकत्ता को छोड़कर दो ढाई वर्षों का रायपुर और दो, चार, दिनों से लेकर माह दो माह के अन्य शहर या गांव रहे होंगे. करुणा का घनत्व भी होता है. यह छत्तीसगढ़ के पक्ष में प्रबल तर्क है कि विवेकानन्द का विशाद और विद्रोह जिस धमनभट्टी से उत्पादित हुए थे. उसका ईंधन छत्तीसगढ़ ने ही उनको प्रदाय किया था.

यह दुर्भाग्य है कि विवेकानन्द के अधिकांश जीवनीकारों और विवेकानन्द दर्शन के समीक्षकों ने उनके छत्तीसगढ़ प्रवास की पूरी अनदेखी की है. रायपुर आने के पहले और बाद विवेकानन्द लगातार एक नियमित छात्र की तरह अध्ययन करते रहे हैं. केवल रायपुर में उन्होंने दो वर्षों ये ज्यादा तक घर में रहते हुए जीवन के विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था.

किताबों के बरक्स छत्तीसगढ़ की ग्रामीण, आदिवासी, गैरबौद्धिक चेतना ने विवेकानन्द को चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए प्रशिक्षित किया था. जो चुनौतियां उनके विराट व्यक्तित्व के सामने पानी भरती नज़र आईं.

इसमें शक नहीं कि छत्तीसगढ़ के लोग अब भी सहिष्णु, दब्बू और समझौतापरक हैं. आजादी और संविधान भी उनमें अपने अधिकारों के लिए युयुत्सा की ऊर्जा नहीं भर सके. विवेकानन्द ने गरीब और मुफलिस व्यक्ति की असहायता को अपने आक्रमण के लिए तीर की तरह इस्तेमाल किया है.

उस वर्ण व्यवस्था के खिलाफ ज़हर उनके मस्तिष्क में छत्तीसगढ़ में ही तो भरा गया होगा. विवेकानन्द के जीवन में व्यवस्था के खिलाफ आग उगलती खीझ की धमनभट्टी छत्तीसगढ़ में अब तक सुलग रही है.

अब विवेकानन्द की नस्ल के सैनिक पैदा होना बंद हो गए हैं. विवेकानन्द छः वर्षों के लिए पूरे भारत का भ्रमण करने निकले. तब उन्होंने छत्तीसगढ़ आने की आवश्यकता नहीं समझी. क्या उन्होंने इतना अधिक छत्तीसगढ़ देख सुन और समझ लिया था कि उसे दुहराने की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती थी.

विवेकानन्द रायपुर बैलगाड़ी के सफर द्वारा ही आ सके थे. तो स्पष्ट है कि यातायात का और कोई बेहतर साधन उन्हें उपलब्ध नहीं रहा होगा. छत्तीसगढ़ के गांवों में क्या विवेकानन्द ने बैलगाड़ी से यात्राएं नहीं की होंगी? दैनिक अनुभवों का जखीरा जब बोझ बन गया होगा, तब उसे कांधे पर लादे वे कलकत्ता लौट गए.

इस बात की भी जानकारी नहीं है कि कलकत्ता में स्कूल में भर्ती होने के बाद विवेकानन्द ने अपने सहपाठियों को छत्तीसगढ़ के अनुभवों को विस्तार से बताया होगा.

छत्तीसगढ़ के प्रभावों की अनदेखी नहीं की जा सकती. छत्तीसगढ़ के असंख्य, नामालूम, गुमनाम इकाइयों की तरह के लोग विवेकानन्द के विराट व्यक्तित्व को बनाने में नींव के खोदने का काम कर चुके थे. उनके हस्ताक्षर इतिहास की पोथी ने सफेद स्याही से लिखे हैं. उनका अस्तित्व भी विवेकानन्द के विचारों में अमिट स्याही की तरह अंकित है.

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