विविध

पुरानी और नई पेशवाई

महाराष्ट्र के पुणे जिले के भीमा कोरेगांव में ऐतिहासिक लड़ाई के 200 साल पूरा होने पर 1 जनवरी, 2018 को मनाए जाने वाले उत्सव के मौके पर दलितों पर संगठित हमले किए गए. इसके बाद दलितों ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन किए. इन हमलों के मूल में इस आयोजन का हिंदुत्व-विरोधी होना है. यह आयोजन दलितों और अल्पसंख्यकों की ओर से किया गया था.

दलित इतिहास में 1818 की भीमा कोरगांव युद्ध का खास स्थान है. यह युद्ध अंग्रेजों और भीमा कोरेगांव के पेशवा शासकों के बीच हुआ था. साम्राज्यवादी ताकतों को इस युद्ध में कामयाबी महार बटालियन की वजह से मिली थी. यहीं से ब्राह्मणवादी पेशवा शासन के अंत की शुरुआत भी हुई थी. दलितों की वीरता के उदाहरण के तौर पर बीआर अंबेडकर भी इसका उल्लेख करते थे. अंबेडकरवादी इसकी वर्षगांठ अलग-अलग रूप में हर साल मनाते आए हैं.

अंबेडकरी की बरसी पर हर साल 6 दिसंबर को मुंबई के चैतन्यभूमि में हजारों की संख्या में जमा होकर अपने नेता का श्रद्धांजलि देते हैं. 25 दिसंबर को अंबेडकर द्वारा मनुस्मृति जलाने की वर्षगांठ के तौर पर दलित मनाते हैं. 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव की वर्षगांठ, 3 जनवरी को सावित्रीबाई फूले का जन्मदिन और 26 जनवरी को अंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान को स्वीकार किए जाने पर इसे गणतंत्र दिवस के तौर पर अंबेडकरवादी मनाते हैं. इन आयोजनों से राज्य में दलितों में सामाजिक चेतना आई है.

इस बार के भीमा-कोरेगांव के आयोजन ने हिंदुत्व-विरोधी रुख अख्तियार कर लिया था. बीआर अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर के संगठन भारीपा बहुजन महासंघ पार्टी की अगुवाई में कई दलित संगठनों ने 31 दिसंबर 2017 को एक सम्मेलन आयोजित करने की घोषणा की थी. इसका आयोजना पुणे शहर के पेशवा महल के शनिवारबाड़ा में किया जाना था. इसका विषय था नव-पेशवाओं के खिलाफ आवाज बुलंद करना. यह विषय सीधे-सीधे मौजूदा शासक वर्ग की विचारधारा पर हमला करने वाला है.

इस मौके पर मुख्य वक्ताओं में प्रकाश अंबेडकर, दलित नेता और गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी, सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी और उल्का महाजन, दिवंगत छात्र नेता रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और छात्र नेता दोंथा प्रशांत और उमर खालिद शामिल थे. ये सभी लोग भाजपा और हिंदुत्व की विचारधारा के घोर आलोचक हैं. इसी वजह से अगड़ी जातियों को इस आयोजन के प्रति गुस्सा आ गया. 31 दिसंबर, 2017 और 1 जनवरी, 2018 को यहां हमले हुए. इसमें एक की जान गई, कई घायल और कई गाड़ियों की तोड़फोड़ की गई.

एलगार परिषद की घोषणा भर से पुणे का ब्राह्मण समाज नाराज हो गया. लेकिन बाद में जब जनदबाव बढ़ा तो इसने खुद दूसरे पक्षों को भीमा कोरेगांव की इतिहास पर बातचीत का न्यौता देना शुरू किया. कुछ समय पहले इस समुदाय के एक वैज्ञानिक मेधा कोले ने अपनी रसोइया को इस वजह से कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दी कि उसने अपनी जाति छिपाई और उनके घर की परंपराओं को तोड़ा. महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की मराठा राजनीति को तोड़ने के बाद भाजपा ने ब्राह्मण और अन्य पिछड़ी जातियों का गठजोड़ तैयार किया है.

इस हमले के पीछे जिन लोगों की पहचान हुई है उनमें शिव प्रतिष्ठान के संभाजी भिडे और हिंदू एकता मंच के मिलिंद एकबोटे हैं. इन दोनों का राज्य और केंद्र की सत्ताधारी पार्टी से गहरा संबंध है. इन पर पहले से भी दलितों के खिलाफ हमला करने के मामले चल रहे हैं.

भाजपा इस हमले के बाद दलितों के विरोध प्रदर्शन की वजह से उलझन में है. महाराष्ट्र में इनकी संख्या भले ही तकरीबन 10 फीसदी है लेकिन राजनीतक चेतना और मजबूत नेटवर्क की वजह से ये मुश्किलें पैदा कर सकते हैं. भाजपा को लग रहा था कि मराठा धु्रवीकरण की वजह से दलित उसके पाले में आ जाएंगे. इससे हिंदू एकता का उसका बड़ा लक्ष्य पूरा होता. राजनीति में मराठों का वर्चस्व है तो सांस्कृतिक क्षेत्र में ब्राह्मण मजबूत हैं. ऐसे में दलितों को नए साझेदारों की जरूरत है.

नितिन आगे से लेकर कोपारडी मामले और बाद में पदमावती पर हुए विरोध और अब भीमा कोरगांव में हुए हमले से यह स्पष्ट है कि महाराष्ट्र में अदालत से लेकर सड़क तक दलितों को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. हालांकि, नव-पेशवाओं के खिलाफ दलितों का धु्रवीकरण हिंदुत्ववादी और दक्षिणपंथी ताकतों को पूरे देश में चुनौती दे सकता है.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय

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