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कार्ल मार्क्स: जो भी है, उसकी मुखर आलोचना

बर्नार्ड डिमेलो
कार्ल मार्क्स मुखर आलोचना में विश्वास रखते थे. उन्होंने पूंजी और पूंजीवाद की आलोचना इसी ढंग से की है. अपने जन्म के 200 साल बाद भी वे दुनिया के सबसे प्रभावशाली ऐतिहासिक व्यक्तित्व बने हुए हैं. उनके विचारों और लेखन में मुखर आलोचना का पुट स्पष्ट तौर पर दिखता है. उदाहरण के लिए उन्होंने 1853 में अंग्रेजों के साम्राज्यवादी स्रोतों पर यकीन किया और उसे इतिहास का अवचेतन औजार माना और उन्हें उम्मीद थी कि इससे भारत का आर्थिक कायाकल्प शुरू होगा. 1881 में उन्होंने कई साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित किया कि अंग्रेज भारत से जो लेते हैं, उसके बराबर नहीं देते बल्कि बदले की भावना से शोषण करते हैं. हालांकि, उनकी अवधारणाएं खुली होती थीं और नए और बदलते हुए ऐतिहासिक परिस्थितियों के हिसाब से स्वीकार किया जा सकता है.

आदर्शवादी के तौर पर शुरुआत करने वाले मार्क्स ने फ्रेडरिक हिगल और लुडविग फेयुरबैच की आलोचना की. उन्होंने अपने आसपास के भौतिक जीवन की परिस्थितियों को देखते हुए अपना भौतिकवाद गढ़ा. तब से उनके विचार प्रवाह में कोई अटकाव नहीं रहा. कोई भी शुरुआती मार्क्स और बाद के मार्क्स के बीच संबंध जोड़ सकता है. उन पर जर्मन दर्शन, फ्रांसीसी समाजवाद, अंग्रेजों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और बाद में रूसी लोकप्रियतावाद का प्रभाव था.

1860 के दशक की शुरुआत में कार्ल मार्क्स के बच्चे लौरा और जेनी मार्क्स ने उनसे कुछ सवालों पर स्वीकारोक्ति कराई थी. इनमें कई जवाब रोचक हैं. जैसेः आपका मुख्य गुण- एक लक्ष्य, आपके लिए खुशी-संघर्ष करना, आपके लिए दुख-आत्मसमर्पण, पसंदीदा काम-पुस्तकें पढ़ना, पसंदीदा सिद्धांत-हर चीज पर संदेह करना.

कैपिटल में मार्क्स ने सारांश निकालने का तरीका अपनाया. बाद में यह एक खास सिद्धांत के तौर पर प्रचलित हुआ जिसमें सारांश से बढ़ते हुए ठोस की ओर पहुंचा जाता है. व्याख्या के हर चरण में वास्तविकता की कई तरह से व्याख्या होती है. इससे गहन अन्वेषण के लिए मुख्य बिंदुओं को अलग रखने में सहूलियत होती है. उदाहरण के लिए कैपिटल के पहले खंड में पूंजी और श्रमिक के संबंध की व्याख्या इसी ढंग से की गई है. महत्वपूर्ण यह है कि मार्क्स की पद्धति ऐतिहासिक थी. समाज में होने वाले बदलाव मानवीय संबंधों पर निर्भर करते हैं. समाज लगातार बदल रहा है. कोई भी पूंजीवाद ऐसा नहीं है जो ऐतिहासिक पूंजीवाद न हो. मार्क्स ने पश्चिम यूरोप की पूंजीवाद की जो व्याख्या की उसमें इसके अस्तित्व में आने से लेकर इसकी कार्यप्रणाली और इसकी दिशा का उल्लेख है.

हमेशा से बदलाव को बढ़ावा देने वाली ऐतिहासिक ताकतों और यथास्थिति को मानने वाले सिस्टेमिक ताकतों में तनाव रहा है. इस संघर्ष से कई बदलाव आते हैं. मार्क्स 1860 के दौर के पूंजी और पूंजीवाद की आलोचना में मुखर रहे हैं लेकिन तब से अब तक अर्थव्यवस्था और समाज में काफी बदलाव आ गया है. जरूरी है कि मार्क्स ने जिस तरह के शोध की शुरुआत की थी, उसे और आगे बढ़ाया जाए. उन्होंने उम्मीद की होगी कि उनके सिद्धांतों की आलोचना हो ताकि वे और समृद्ध हो सकें.

कैपिटल के पहले खंड के प्रकाशन के 150 साल से अधिक हो गए हैं. अब पूंजीवाद पूरी तरह से वैश्विक स्तर पर काम कर रहा है. इसे पोषित करने का काम राजनीतिक और सैन्य तंत्र करता है. इसमें शोषण चरम पर है. जो अतिरिक्त आय है, वह शासक और अभिजात्य वर्ग में केंद्रित है. यह तंत्र कुछ ऐसे विकसित हुआ है कि वित्तीय अटकलबाजी बढ़ी है और वास्तविक पूंजी के निर्माण नहीं होने से अटकलबाजी वाली वित्तीय तंत्र में अधिक पूंजी लग रही है.

इस बीच वास्तविक वैश्विक अर्थव्यवस्था में गैरबराबरी बढ़ रही है. शोषण बहुत अधिक है और इसका सबसे अधिक फायदा पूंजीपतियों को मिल रहा है. इसका दबाव किसानों पर भी बढ़ रहा है. बाजार को प्रभावित करने की क्षमता किसानों में नहीं है. इस वजह से उनका शोषण पूंजीपति कीमतों के मनमाफिक निर्धारण के जरिए कर रहे हैं. उनकी मजदूरी भी काफी कम है.

अभी जो पूंजी और पूंजीवाद की आलोचना होगी वह कैपिटल के तीनों खंडों की उस वक्त की आलोचना से काफी अलग होगी. जगह की कमी को देखते हुए इनका जिक्र भर किया जा सकता हैः वैश्विक स्तर पर वर्ग विश्लेषण, श्रमिक ताकतों का महत्व और इसकी अलग-अलग कीमतें, शोषण, शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था, किसानों की बुरी स्थिति, बगैर भुगतान के होने वाला घरेलू काम, बहुसंख्यकों के हाथ में कोई शक्ति नहीं होना, प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा, मनमाफिक किराया वसूली, पर्यावरणीय सम्राज्यवाद, अस्थिरता, वित्तीय पूंजी पर एकाधिकार, विभिन्न व्यवस्थाओं के अंतर्विरोध और समाजवादी सामाजिक क्रांति.

मार्क्स के जन्म के 200 साल बाद उनके विचारों और पद्धतियों के जरिए विश्व की नए सिरे से व्याख्या करने की जरूरत है. पुराने व्याख्या की आलोचना करने की भी जरूरत है. वास्तविकता में मार्क्सवाद को लेकर उस मशीनी सोच को छोड़ने की जरूरत है जिसमें कहा गया है कि मार्क्सवाद को आर्थिक चीजों को तय करने का माध्यम माना गया है. ऐसा माना जाता था कि यह सर्वदा के लिए सत्य है.

दुनिया की नई सिरे से विश्लेषण और इसे समाजवादी सामाजिक क्रांति के जरिए बदलना जरूरी है. क्योंकि अगर पूंजी और पूंजीवाद इसी ढंग से चलते रहे तो मानवता के पास 200 साल का वक्त नहीं रह सकेगा.
यह इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित लेख का अनुवाद है.

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