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कोलगेट के सबक

कोलगेट कांड में एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी को मिली सजा भारत में कानून के क्रियान्वयन प्रक्रिया पर कई तरह के सवाल खड़े करने वाली है. 23 मई को जज भारत पराशर ने कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव हरीश चंद्र गुप्ता को दो साल कैद की सजा सुनाई. उन्हें यह सजा कोयला खदान के अवैध आवंटन के एक मामले में सुनाई गई. इसके फैसले से ब्यूरोक्रेसी में हड़कंप मचा हुआ है. भारतीय प्रशासनिक सेवा के कई मौजूदा और सेवानिवृत्त अधिकारियों ने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई है. यह फैसला केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के मामलों की सुनवाई के लिए बनाए गए विशेष अदालत ने दिया है. इन अधिकारियों का यह दावा है कि गुप्ता बेहद ईमानदार हैं और कोयला खदान आवंटन में उन्हें गलत सरकारी नियम के पालन की वजह से परेशान किया जा रहा है.

यह पूरा मामला भारत में कानूनों के क्रियान्वयन से जुड़ी दो बातों को सामने लाने वाला है. पहली बात यह है कि कानूनी प्रावधान की अस्पष्टताएं अधिकारियों को विवेकाधीन शक्तियां दे रही हैं. दूसरी बात यह है कि कोलगेट मामले में कैसे पूरी आपराधिक प्रक्रिया चली. यह मामला जुड़ा हुआ है 214 कोयला ब्लॉक के आवंटन से. यह प्रक्रिया शुरू हुई थी 1993 से.

सर्वोच्च न्यायालय ने अगस्त, 2014 में इन आवंटनों को गैरकानूनी मानते हुए रद्द कर दिया. इस पूरे मामले में सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकारी अधिकारियों के पीछे छिपे इनके राजनीतिक आकाओं की पहचान देश की न्यायपालिका क्यों नहीं कर पा रही है. न ही सीबीआई नेताओं के मामलों में वह तेजी दिखा रही है जो तेजी वह अफसरों और कारोबारियों के खिलाफ मामलों की जांच करते वक्त दिखाती है. जबकि ये तीनों आपस में मिलकर काम करते हैं.

कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने 2012 में एक डराने वाली रिपोर्ट दी थी. हालांकि, आवंटन प्रक्रिया के गैरकानूनी होने की बात बहुत पहले से चल रही थी. सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में अनुमान लगाया कि गलत आवंटन की वजह से सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. यह दुनिया में अपनी तरह का बड़ा स्कैंडल था. उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह निर्णय लेने में आठ साल लग गए कि कोयला ब्लॉक का आवंटन सार्वजनिक तौर पर हो.

संयोग यह भी है कि जब कोयला ब्लॉकों का अवैध आवंटन हुआ, उस वक्त कोयल मंत्रालय का प्रभार खुद उन्हीं के पास था. बीच में एक स्क्रीनिंग समिति बनी जो यह तय करती थी कि कौन सा कोयला ब्लॉक किसी मिलेगा. इन समितियों की कार्यप्रणाली पारदर्शी नहीं थी और सर्वोच्च अदालत ने तो यहं तक कहा कि इस समिति ने कानून का उल्लंघन किया. नवंबर, 2008 में सेवानिवृत्त होने के दो साल पहले से इस समिति की अध्यक्षता गुप्ता कर रहे थे.

इस दौरान कम से कम 40 कोयला ब्लॉक का आवंटन किया गया. जिस मामले में उन्हें सजा हुई, उसके अलावा उन पर दर्ज अन्य 10 मामलों की भी सुनवाई चल रही है. जिस मामले में उन्हें सजा सुनाई गई है वह मध्य प्रदेश के कमल स्पोंज स्टील ऐंड पावर लिमिटेड से जुड़ी हुई है. इसके प्रबंध निदेशक पवन कुमार आहलूवालिया और कोयला मंत्रालय के अन्य दो पूर्व अधिकारियों केएस क्रोफा और केसी समरिया को भी सजा सुनाई गई है.

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कैसे अपने हिसाब से कानूनी एजेंसियां काम करती हैं, इसे जानने से पहले यह भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 की धारा 13.1डी.3 की स्पष्टता को जान लेते हैं. इसमें कहा गया है कि किसी सरकारी अधिकारी को तब आपराधिक तौर पर कसूरवार माना जाएगा जब उसे बगैर किसी जन हित के कोई कीमती चीज मिले या आर्थिक लाभ मिले. इसका मतलब यह हुआ कि सीबीआई को ‘आपराधिक इरादा’ या ‘किसी कार्य के बदले फायदा’ स्थापित करना जरूरी नहीं है.

इस धारा को खत्म करने का प्रस्ताव संसद की एक समिति के समक्ष विचाराधीन है. गुप्ता और उनके समर्थकों का कहना है कि गुप्ता को निर्णय लेने में हुई ‘भूल’ की सजा दी जा रही है जबकि इसमें कहीं भी ‘आपराधिक इरादा’ या ‘बदले में फायदा’ की बात नहीं है. जबकि अदालत ने अपने फैसले में यह कहा कि गुप्ता ने उस वक्त के कोयला मंत्री यानी प्रधानमंत्री को अंधेरे में रखकर उनकी अंतिम मंजूरी ली. इस फैसले को सिर्फ उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्यों सीबीआई और न्यायपालिका उन नेताओं पर कुछ नहीं कर रही है जिन पर कोलगेट में आरोप लगे थे. इनमें पूर्व कोयला राज्य मंत्री संतोष बगरोड़िया और दसरी नारायण राव प्रमुख हैं. तीन बार के राज्यसभा सांसद और कांग्रेसी नेता विजय दर्डा और उनके भाई राजेंद्र दर्डा भी इनमें शामिल हैं. राजेंद्र दर्डा महाराष्ट्र के शिक्षा मंत्री भी रहे हैं. विजय दर्डा लोकमत मीडिया समूह भी चलाते हैं.

नेताओं में सबसे प्रमुख नाम है पूर्व कांग्रेसी सांसद और उद्योगपति नवीन जिंदल का. जिंदल की कंपनी को कोयला ब्लॉक आवंटन में सबसे अधिक फायदा मिला था. उन कंपनी पर आरोप था कि उसने राव को अपने पक्ष में फैसले के लिए पैसे दिए. इनके अलावा कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के कई अन्य नेताओं का नाम भी आया था और कई कारोबारियों और सरकारी अफसरों का भी. 25 अप्रैल को सीबीआई ने अपने ही पूर्व निदेश रंजीत सिन्हा के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया. उन पर यह आरोप है कि उन्होंने जांच को प्रभावित करने की कोशिश की.

ऐसे समय में जब नरेंद्र मोदी सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि वह अपने विरोधियों को दबाने के लिए उनके खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल कर रही है, सीबीआई और न्यायपालिका देश के अब तक के सबसे बड़े कांड के ताकतवर आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करते नहीं दिख रही है.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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