Columnist

नोटबंदी आमजन पर हमला है

राम पुनियानी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को जो दांव खेला, उससे पूरा देश अभूतपूर्व संकट में फंस गया है. देश की मुद्रा के 86 प्रतिशत हिस्से को चलन से बाहर कर दिया गया. 500 और 1,000 के नोटों के विमुद्रीकरण ने समाज के एक बड़े हिस्से को मुसीबत में डाल दिया है. बैंकों और एटीएम से पैसे निकालने के लिए कतारों में अपनी बारी का इंतज़ार करते 70 लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं. रोज़ कमाने-खाने वालों को दिन-दिनभर अपने ही खातों से पैसा निकालने के लिए इंतज़ार करना पड़ रहा है. दैनिक मज़दूरी करने वाले लाखों लोग अपने काम से वंचित हो गए हैं और अपने गांव लौट गए हैं. छोटे व्यवसायियों को अपूरनीय क्षति हुई है. किसानों की कमर टूट गई है.

इसके विपरीत, जिनके पास काला धन है, वे निश्चिंत और प्रसन्न हैं. ऐसा बताया जाता है कि देश में जो काला धन है, उसका 80 प्रतिशत विदेशों में जमा है और 15 प्रतिशत अचल संपत्ति सोने और शेयरों के रूप में है. केवल पांच प्रतिशत काला धन नकदी के रूप में है और इस पांच प्रतिशत की खातिर 86 प्रतिशत मुद्रा को रद्दी में बदल दिया गया है और इस देश के लाखों ऐसे लोग, जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है, गंभीर संकट में फंस गए हैं.

किसानों, मज़दूरों और आम लोगों का कड़ी मेहनत से कमाया गया धन सहकारी बैंकों, गृहनिर्माण समितियों और कृषि सहकारी ऋण समितियों में फंस गया है. कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लकवा मार गया है. कार्पोरेट उद्योगपतियों के अरबों के ऋणों को माफ कर दिया गया है. इस सबसे यह स्पष्ट है कि विमुद्रीकरण का उद्देश्य, काले धन को समाप्त करना नहीं बल्कि आमजनों के मुश्किल से कमाए गए धन को बैंकों के ज़रिए बड़े उद्योगपतियों की जेबों में पहुंचाना है. सरकार के इस निर्णय को काला धन रखने वालों और बड़े औद्योगिक घरानों का पूर्ण समर्थन प्राप्त है क्योंकि उन्हें इससे सबसे ज्यादा लाभ हुआ है.

इस निर्णय पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं. लंबी, सर्पीली कतारों में खड़े लोगों ने अपने पसीने और अपनी जान से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी है. उनमें से कुछ ने यह कहा है कि इससे उन्हें थोड़े समय भले ही परेशानी हो रही हो, परंतु आगे चलकर उनका कुछ भला ही होगा. विपक्षी पार्टियां, जो हमेशा की तरह विभाजित हैं, ने सरकार के निर्णय की कड़ी आलोचना की है. जानेमाने अर्थशास्त्रियों और मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इस निर्णय की तीखी आलोचना करते हुए उसे गलत और बिना सोचे-समझे लिया गया बताया है. पहले की तरह, मोदी की नीतियों के विरोधियों को राष्ट्रविरोधी बताया जा रहा है. मोदी के अभिन्न साथी बाबा रामदेव ने नोटबंदी के निर्णय का विरोध करने वालों को देशद्रोही बताया है तो संघ, आरएसएस स्वयंसेवक और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने उनके लिए देशविद्रोही शब्द का इस्तेमाल किया है. मोदी-प्रेमी कह रहे हैं कि यह एक अच्छा निर्णय है. उन्हें यह भ्रांति है कि दीर्घकाल में यह निर्णय देश हित में होगा और उन्हें भी उससे लाभ मिलेगा. मोदी ने एक एप के ज़रिए किए गए सर्वेक्षण के आधार पर यह घोषणा की है कि लोग उनके साथ हैं. इसके विपरीत कुछ सर्वेक्षणों से ऐसा पता चलता है कि इस निर्णय से लोग बहुत नाराज़ और परेशान हैं.

यह निर्णय क्यों लिया गया, इसे समझना मुश्किल नहीं है. गुजरात के दो प्रमुख समाचारपत्रों में कई महीनों पहले यह खबर प्रकाशित हुई थी कि सरकार कुछ नोटों का चलन बंद करने का निर्णय ले सकती है. कुछ लोगों का कहना है कि इस निर्णय का उद्देश्य उत्तरप्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों में विपक्षी दलों की कमर तोड़ना है. इन लोगों का मत है कि इस निर्णय से विपक्षी पार्टियों के पास चुनाव प्रचार करने के लिए आर्थिक संसाधनों की भारी कमी हो जाएगी. ऐसी खबर है कि भाजपा ने इस निर्णय के ठीक पहले भारी मात्रा में अचल संपत्ति की खरीदारी की है. इस निर्णय से बैंकों में भारी धन जमा होने की उम्मीद है और इस धन का इस्तेमाल, बड़े उद्योगपतियों के बकाया ऋणों को माफ करने के लिए किया जाएगा.

सन 2014 के लोकसभा चुनाव के अपने प्रचार के दौरान मोदी ने वायदा किया था कि अगर वे सत्ता में आए तो देश में अच्छे दिन आएंगे. विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत वापिस लाया जाएगा और देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रूपए जमा होंगे. लोगों के खातों में 15 लाख तो क्या 15 रूपए भी जमा नहीं हुए. उलटे, बेलगाम मंहगाई ने उनका जीना दूभर कर दिया. तुअर दाल की कीमत रूपए 60 से बढ़कर रूपए 150 प्रति किलो हो गई. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 119 डॉलर प्रति बेरल से घटकर 30 डॉलर प्रति बेरल होने के बावजूद, भारत में पेट्रोल की कीमत रूपए 67 प्रति लीटर से घटाकर केवल रूपए 60 प्रति लीटर की गई.

माल्या जैसे बैंकों के कर्ज़दार, देश से भाग गए और अब आराम से विदेशों में मौज कर रहे हैं. यह दावा किया गया था कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण डॉलर की तुलना में रूपया मज़बूत होगा. ऐसा नहीं हुआ. नोटबंदी के कारण असंगठित क्षेत्र में उत्पादन लगभग बंद सा हो गया है. ऐसा लगता है कि शायद मोदी ने यह निर्णय इसलिए लिया क्योंकि वे उनके बड़े-बड़े वादे पूरे न कर पाने के कारण उन पर हो रहे कटु हमलों से बचने का कोई रास्ता ढूंढ रहे थे. उन्हें लगा कि एक बड़ा धमाका करने से उनके विरोधियों के मुंह बंद हो जाएंगे. तथ्य यह है कि आज भी देश में काले धन पर और ऐसे धन पर जिस पर कोई टैक्स नहीं चुकाया गया है, कोई हमला नहीं हुआ है. सरकार नकदी-विहीन अर्थव्यस्था का राग अलाप रही है, जो कि इस देश में संभव ही नहीं है.

पिछले ढाई सालों में संघ परिवार का तथाकथित अतिवादी तबका दुस्साहसी बन गया है और वह पहचान से जुड़े बेमानी मुद्दे उछाल रहा है. राम मंदिर, पवित्र गाय, गोमांस, भारत माता की जय, शैक्षणिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमला और बढ़ती हुई असहिष्णुता इसके उदाहरण हैं. देश के खराब होते सामाजिक-राजनैतिक वातावरण के विरोध में कई प्रतिष्ठित लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने सरकारी पुरस्कार लौटा दिए थे. गरीबी, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और कुपोषण जैसी मूल समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है. अति राष्ट्रवाद की आंधी ने कश्मीर में हालात बिगाड़ दिए हैं और पाकिस्तान व नेपाल सहित हमारे पड़ोसियों से हमारे संबंधों में खटास आ गई है.

नोटबंदी से केवल बड़े उद्योगपतियों को फायदा हुआ है और आमजनों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है. यह प्रचार बहुत ज़ोरशोर से किया जा रहा है कि अंततः इससे आमजन लाभांवित होंगे. परंतु देर सबेर इस प्रचार की हवा निकलना तय है.

*लेखक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!