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साम्प्रदायिकता का चुनावी फार्मूला

आम चुनाव से पहले के उपचुनावों के परिणाम आम चुनावों के लिए एक संकेत के रुप में माने जाते हैं. भारतीय राजनीति के इतिहास में उपचुनाव के नतीजों को आम चुनाव में दोहराते देता गया है. 1977 में जनता पार्टी की सरकार एक बड़े जनांदोलन के बाद बनी थी. ये किसी के लिए भी उम्मीद करना संभव नहीं था कि ढाई साल में ही प्रचंड बहुमत वाली सरकार का पतन हो जाएगा. लेकिन 1980 में जनता पार्टी की पराजय से पहले इंदिरा गांधी ने कर्नाटक में चिकमंगलूर में हुए संसदीय उपचुनाव में जीत हासिल की थी. इंदिरा गांधी की वह जीत का एक नारा 1980 में उनकी पार्टी को फिर से सत्ता में बैठा दिया.

राजस्थान और पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों को अपवाद के रुप में नहीं लिया जा सकता है. यह नतीजे हालात के बीच से निकले नतीजे हैं. राजस्थान में अलवर सीट से कांग्रेस उम्‍मीदवार करण सिंह यादव ने भाजपा के जसवंत सिंह यादव को 1,56,319 वोट से हरा दिया. जसवंत यादव, वसुंधरा राजे सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. अजमेर संसदीय क्षेत्र और विधानसभा क्षेत्र मांडलगढ़ में हुए उपचुनाव में भी कांग्रेस ने जीत हासिल की है. अजमेर लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस के रघु शर्मा ने भाजपा के रामस्वरूप लांबा को 84 हजार से अधिक और मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी विवेक धाकड़ ने भाजपा उम्मीदवार शक्ति सिंह को लगभग 13 हजार वोटों से हराया.

राजस्थान में लोकसभा के लिए होने वाले अगले वर्ष के चुनाव से पूर्व ही विधानसभा के लिए चुनाव होंगे. अब से करीब सवा चार वर्ष पहले जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब भाजपा ने दौ सौ सीटों वाली विधानसभा में 163 सीटें जीती थीं. लोकसभा में तो उसे सभी 25 संसदीय सीटें मिली. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मात्र 21 सीटें मिली थी और लोकसभा में वह शून्य पर पहुंच गई. लेकिन पिछले चार वर्षों में चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो भाजपा को मात्र एक और कांग्रेस को तीन सीटें मिली.

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम एक अलग विश्लेषण की मांग करते हैं. लेकिन उस पर चर्चा से पहले राजस्थान के नतीजों का विश्लेषण अगले दोनों चुनावों- विधानसभा और लोकसभा, के मद्देनजर महत्व रखता है. राजस्थान पिछले चार वर्षों में सर्वाधिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध कई बहानों से साम्प्रदायिक हमलों के लिए चर्चा में रहा है.

हाल के उपचुनावों से पहले संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ के खिलाफ जिस तरह से साम्प्रदायिक और जातीय उन्माद का वातावरण खड़ा हुआ, उससे भी लगा कि महारानी मुख्यमंत्री अपनी सत्ता अपनी सरकार के आर्थिक-सामाजिक विकास के कार्यक्रमों की सफलता के बूते पर लड़ने की कुबत नहीं रखती हैं. उसे एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जिससे भावनात्मक रुप से उत्तेजित होकर एक खास साम्प्रदाय के मतदाता भीड़ की शक्ल में मतदान केन्द्रों पर टूट पड़े. लेकिन ‘पद्मावत’ समाज पर सवर्ण पुरुषवादी वर्चस्व के पक्षधर के रुप में दिखने के बावजूद महारानी की सरकार मतदाताओं को भीड़ की शक्ल में तब्दील नहीं कर सकी.

भाजपा उप चुनाव
भाजपा उप चुनाव
राजस्थान के चुनाव नतीजे वास्तव में गुजरात विधानसभा के लिए हुए चुनावों के नतीजों के विश्लेषण के करीब ही पहुंचती है. बल्कि ये कहा जा सकता है कि राजस्थान, गुजरात की अगली कड़ी है जो कि गुजरात चुनावों के नतीजों के विश्लेषण को पुष्ट करती है. गुजरात में प्रधानमंत्री ने अपने गृह प्रदेश में उतने दौरे किए, जो कि किसी प्रधानमंत्री द्वारा विधानसभा के चुनावों के लिए किए गए दौरों के सारे रिकार्ड को तोड़ता है. उनके चुनाव प्रचार में गुजरात का विकास मॉडल पृष्ठभूमि में चला गया.

गुजरात के सामाजिक और राजनीतिक हलचल ने भारतीय जनता पार्टी को रक्षात्मक हालात में खड़ा कर दिया और वहां के मतदाताओं में साम्प्रदायिक कार्ड को पांच सौ के पुराने नोट की तरह खारिज कर दिया. यह अनुभव किया जाता है कि सरकार के कामकाज से निराशा में उपजे असंतोष को साम्प्रदायिक वातावरण के जरिये एक बार तो भुनाया जा सकता है लेकिन वह बार-बार वह कार्ड संसदीय राजनीति में जीत का स्थायी फार्मूला नहीं बन सकता है.

राजस्थान के चुनाव नतीजों को ये मानना भी सही नहीं लगता है कि वह कांग्रेस की सक्रियता का नतीजा है. वह सत्तारुढ़ पार्टी की संस्कृति और नीतियों के खिलाफ उजपा असंतोष है. ठीक उसी तरह से जैसे गुजरात में कांग्रेस चुनाव के ठीक पहले पहुंची और उसे अपेक्षा से ज्यादा सीटों पर कामयाबी मिल गई. समाज में जिस तरह का राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक असंतोष है, वह स्वभाविक रुप से सबसे बड़े विपक्ष के रुप में कांग्रेस के पास मतदाताओं को ले जाता है.

जैसे मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ असंतोष भाजपा के उन मतदाताओं के बड़े हिस्से को ले गया, जो कि चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. राजस्थान के चुनाव नतीजों को महारानी वसुंघरा राजे और प्रथम सेवक नरेन्द्र मोदी के बीच राजनीतिक मतभेदों के रुप में भी विश्लेषित करना नतीजों की असल आवाज को अनसुना करना हो सकता है. दरअसल संसदीय लोकतंत्र में भीड़ एक तरफ बढ़ती है और लगातार बढ़ रही है, इन नतीजों का यह संकेत है.

पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल की उलबेडि़या लोकसभा सीट पर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने अपना कब्जा बरकरार रखा और कांग्रेस के कब्जे वाली नोआपाड़ा विधानसभा सीट पर भी उसने जीत दर्ज की. उत्तर 24 परगना जिले के नोआपाड़ा विधानसभा सीट से तृणमूल कांग्रेस के सुनील सिंह को जीत मिली है. सुनील सिंह को 101729 मत मिले जबकि भाजपा के संदीप बनर्जी को 38711 मत मिले. माकपा की गार्गी चटर्जी 35497 मतों के साथ तीसरे स्थान पर और कांग्रेस के गौतम बोस 10090 मत प्राप्त कर चौंथे स्थान पर रहे.

इसी तरह उलबेडि़या लोकसभा सीट से तृणमूल कांग्रेस की उम्मीदवार साजदा अहमद ने निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा के अनुपम मल्लिक को हराया. साजदा को 664967 मत मिले, जबकि भाजपा उम्मीदवार अनुपम मल्लिक को 297697 मत मिले. माकपा उम्मीदवार सबीरुद्दीन मोल्ला नंबर तीन पर रहे कांग्रेस के एस के मुदस्सर हुसैन वारसी चौथे स्थान पर हैं.

पश्चिम बंगाल में इन नतीजों का विश्लेषण इस रुप में किया जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस अपने कामकाज के कारण अपनी लोकप्रियता बनाए हुए हैं. लेकिन यह रुढ़ किस्म का विश्लेषण है. वास्तव में पश्चिम बंगाल की राजनीति एक नये तरह के संक्रमण से गुजर रही है. माकपा का लंबे समय तक शासन रही है. मतदाताओं के बीच जो राजनीतिक विमर्श का एक ढांचा उस दौरान विकसित हुआ था वह पुरी तरह बिखर चुका है. यह देश के विभिन्न हिस्सों में भी देखने को मिल रहा है.

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने अपने पक्ष में जो मतों का समीकरण तैयार कर रखा है, वह उसे तभी बरकरार रख सकती है जब कि भाजपा एक बड़े खतरे के रुप में वातावरण को निर्मित करते दिखे. बिहार में लालू प्रसाद की सरकार ने अपने अनुकूल मतदाताओं के बीच एक समीकरण तैयार किया था और उस समीकरण में लालू के प्रति अल्पसंख्यक समर्थन के हालात को भाजपा ने बखूबी इस्तेमाल किया और अपनी सांगठनिक ताकत में बढ़ोतरी की. तृणमूल के मतों के समीकरण और उस समीकरण के प्रति समर्पित ममता के लगातार आने वाले संदेश भाजपा के आधार को विस्तारित करने में मदद कर रहे हैं, ये नतीजे उसी के संकेत है.

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