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वन अधिकार के फैसले पर रोक

नई दिल्ली | संवाददाता: बिना वन अधिकार पट्टे के जंगल में रहने वालों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने के अपने आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का देश भर में विरोध हो रहा था.

गौरतलब है कि वन अधिकार क़ानून 2006 के अंतर्गत बरसों से जंगल के इलाके में रहने वाले लोगों को ज़मीन का पट्टा दिये जाने का प्रावधान रखा गया था. लेकिन देश भर में जिन लोगों ने ज़मीन का पट्टा हासिल करने का आवेदन किया, उनमें से आधे लोगों के आवेदन रद्द कर दिये गये.

एक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई करते हुये सुप्रीम कोर्ट ने ‘जंगल के भीतर रहने वाले आदिवासी जनजाति’ और ‘जंगल में रहने वाले अन्य पारंपरिक’ लोगों को 27 जुलाई तक जंगल से इलाके से बेदखल करने का आदेश जारी किया था. यह दिलचस्प है कि केंद्र सरकार के वकीलों ने पिछली तीन सुनवाइयों में अदालत में कुछ भी नहीं कहा और फैसले वाले दिन तो केंद्र सरकार का पक्ष रखने के लिये सरकारी वकील ही मौजूद नहीं थे.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर देश भर में आदिवासी सकते थे. इसके अलावा जंगल में रहने वाले दूसरे लोगों के सामने भी संकट पैदा हो गया था. अब सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को देश के लगभग 20 लाख आदिवासियों को राहत देते हुए इसी महीने की 13 तारीख को दिए अपने उस आदेश पर रोक लगा दी है. जस्टिस अरूण मिश्रा, जस्टिस नवीन शाह और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने ये फ़ैसला सुनाया.

छत्तीसगढ़ का हाल

छत्तीसगढ़ में वन अधिकार के लगभग 55 प्रतिशत दावों को सरकार ने रद्द कर दिया है. इसी तरह सामुदायिक अधिकार के लगभग 48.60 फीसदी दावे रद्द कर दिये गये हैं.

जाहिर है, बरसों से वनों में रहने वाले लोगों के सामने जंगल की ज़मीन से बेदखली का खतरा मंडराने लगा है.

भारत सरकार ने 30 नवंबर 2017 तक के जो आंकड़े पेश किये हैं, उसके अनुसार छत्तीसगढ़ में वनों में रहने वाले 8,52,530 व्यक्तिगत दावे सरकार के समक्ष आये थे. सरकार ने इनमें से केवल 3,86,206 दावों को योग्य माना और उन्हें अधिकार पत्र सौंपा. यानी सरकार ने केवल 45.30 प्रतिशत दावों को ही मान्य किया.

इसी तरह सामुदायिक अधिकार दावों का संख्या 27,548 थी. इनमें से केवल 14,161 दावों को सही माना गया. यानी सरकार ने 51.40 प्रतिशत को सामुदायिक अधिकार दिया गया, जबकि 48.60 प्रतिशत आवेदनों को खारिज कर दिया.

राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थितियां बहुत अच्छी नहीं हैं. देश भर में पिछले साल नवंबर तक 40,39,054 व्यक्तिगत दावे पेश किये गये थे.

इनमें से 17,60,869 दावों को योग्य माना गया. यानी कुल 43.59 प्रतिशत दावों को ही सही मान कर वन अधिकार पट्टा दिया गया.

इसी तरह 1,39,266 सामुदायिक दावों में से केवल 64,328 दावों को सही माना गया. इस तरह केवल 46.19 प्रतिशत को ही सामुदायिक अधिकार के योग्य माना गया.

सबसे भयावह स्थिति असम जैसे राज्यों की है, जहां एक भी दावों को निरस्त नहीं किया गया है लेकिन महज 37.93 प्रतिशत लोगों को ही वन अधिकार पट्टा मिला है.

असम में 1,48,965 व्यक्तिगत दावे थे, जिसमें से 57,325 दावेदारों को वन अधिकार कानून के तहत अधिकार पत्र दिया गया. इसी तरह 6,046 सामुदायिक दावे किये गये थे, जिसमें से 1,477 सामुदायिक दावों को सरकार ने मान्यता दी.

उत्तराखंड और बिहार में तो सामुदायिक दावों को स्वीकार ही नहीं किया गया.

उत्तराखंड में कुल 182 लोगों ने वन अधिकार कानून के तहत दावा किया था. इसमें से एक आवेदन निरस्त कर दिया गया. लेकिन शेष बचे 181 लोगों को आज तक वन अधिकार नहीं मिल पाया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात की हालत भी वन अधिकार के मामले में अच्छी नहीं है.

गुजरात में 1,82,869 व्यक्तिगत अधिकार दावा पेश किया गया था, इसमें से 81,178 दावों को तो सरकार ने सही माना लेकिन शेष दावों पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई.

हिमाचल प्रदेश में 591 दावे पेश किये गये थे. लेकिन इनमें से केवल 53 दावों की ही सुनवाई हुई और शेष दावे अभी भी फाइलों में पड़े हुये हैं.

मध्यप्रदेश में 5,76,645 व्यक्तिगत दावों में से 2,20,741 दावे स्वीकार किये गये. शेष दावों को रद्द कर दिया गया.

तमिलनाडु में 18,420 व्यक्गित दावे और 3,361 सामुदायिक दावे किये गये थे. लेकिन न तो इन्हें रद्द किया गया और ना ही आज तक इनमें से किसी को भी अधिकार पत्र दिया गया.

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