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जेनेरिक के नुकसान जानिए

जेके कर
जेनेरिक दवा का मुद्दा फिर से सुर्खियों में है.पिछले माह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक समारोह में जेनेरिक दवा के बारे में कहा था. उसके बाद अभी हाल ही में केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार ने बताया है कि केन्द्र सरकार इसी साल के अंत तक ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में ऐसा बदलाव लाने जा रही है, जिससे दवा दुकानदार चिकित्सकों के पर्चे को देखकर उसके बदले में सस्ती जेनेरिक दवा दे सकेंगे.

इसी के साथ केन्द्र सरकार द्वारा साल 2008 में शुरु किये गये जनऔषधालय के बारें में बताया गया है कि उनका विस्तार किया जायेगा. साल 2017 के अंत 3000 नये जनऔषधालय खोले जायेंगे. वर्तमान में इस तरह के करीब 1300 जनऔषधालय पहले से ही हैं. अब हम इन दोनों बातों की गहराई में जाने की कोशिश करेंगे.

सबसे पहली बात जो मीडिया से छनकर आ रही है, वह है कि दवा दुकानदारों को इस बात का अधिकार दिया जायेगा कि वे चिकित्सकों के पर्चो में लिखे दवा के ब्रांड के स्थान पर जेनेरिक दवा मरीजों को दे सकेंगे.

उल्लेखनीय है कि साल 1972 तक दवा दुकानदार मरीजों को चिकित्सकों के द्वारा लिखे गये ब्रांड के बदले में दूसरे ब्रांड की दवा दे सकते थे. लेकिन साल 1972 में ही ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट के नियम 65, 11A में संसोधन के द्वारा इस बात पर रोक लगा दी गई कि दवा दुकानदार या फार्मासिस्ट चिकित्सकों के द्वारा लिखे गये दवा के बदले में कोई दूसरी वही दवा नहीं दे सकेंगे. जाहिर है कि केन्द्र सरकार इसी नियम में बदलाव लाने जा रही है.

अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या चिकित्सक के द्वारा लिखे गये ब्रांड के स्थान पर जेनेरिक दवा दे देने से मरीजों को आर्थिक रूप से राहत मिल पायेगी? वर्तमान में देश के दवा बाजार की जो हालत है वो चीख-चीखकर कह रही है कि नहीं. इसके लिये इंडियन जर्नल ऑफ फार्माकोलाजी में छपे एक अध्ययन पर गौर करना दिलचस्प होगा.

सस्ती जेनेरिक दवा
जेनेरिक दवा
इसके अनुसार भारतीय दवा कंपनी सिपला तथा कैडिला के 5 दवाओं के ब्रांडेड तथा जेनेरिक दवा का अध्ययन साबित करता है कि जेनेरिक दवाओं के दाम ब्रांडेंड से 41%, 33%, 0%, 14% तथा 31% कम हैं परन्तु उन दवाईयों को दवा दुकानदारों को 201% से लेकर 1016% तक मुनाफा दिया जा रहा है. जबकि यह इन्हीं कंपनियों के ब्रांडेड दवाओं पर 25% से लेकर 30% मात्र हैं.

जाहिर है कि गेंद चिकित्सकों के पाले से निकलकर दवा दुकानदारों के पाले में चली जायेगी. इस अध्ययन में इन्ही दो कंपनियों के ब्रांडेड तथा जेनेरिक दवा सिट्राजाइऩ, फ्लूक्सेटीन, सिप्रोफ्लॉक्सासिन, लैंसोप्रोजाल तथा एलप्राजोलम दवा शामिल थे. यह पाया गया कि ब्रांडेड तथा जेनेरिक दवाओँ के गुणवत्ता समान है. याद रखिये कि दोनों दवाओं का परीक्षण लैब में इस विषय के जानकारों द्वारा किया गया था.

अब जरा जनऔषधालय पर गौर करेंगे. वर्तमान में देशभर में 1300 के करीब जनऔषधालय हैं. साल के अंत तक और 3000 नये जनऔषधालय खोले जायेंगे. इस तरह से कुल 4300 जनऔषधालय हो जायेंगे. हमारे देश की जनसंख्या सवा अरब की है. इस तरह से 2 लाख 90 हजार की आबादी के लिये एक जनऔषधालय होगा. यदि इस आबादी के 10 फीसदी लोग भी अर्थात् 29 हजार लोग बीमार पड़ जाये तो औसतन प्रति जनऔषधालय इतने मरीज वहां पहुंचे तो उस जनऔषधालय का क्या हाल होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.

यदि इसे और सरलीकृत किया जाये कि 29 हजार लोग 1 माह में बीमार पड़ते है तो 1 जनऔषधालय को करीब रोज 1 हजार मरीजों को दवा देना पड़ेगा. क्या यह संभव है? देश अभी भी ‘नोटबंदी’ के समय एटीएम तथा बैंकों में उमड़ी भीड़ को नहीं भूले होंगे.

दरअसल, जनता को बीमार पड़ने पड़ उच्च गुणवत्ता वाली दवा कम दाम पर चाहिये. चाहे वे ब्रांडेड हो या जेनेरिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. यूपीए-2 सरकार द्वारा साल 2013 में जो दवा नियंत्रण आदेश लाया गया था वह बाजार पर आधारित है. जिसके तहत जिन दवाओं की हिस्सेदारी बाजार में 1 फीसदी भी है वे इसके दायरे में आ जाती है. अब इसके गणित को समझने का प्रयास करेंगे. इस दवा मूल्य नियंत्रण आदेश के अनुसार किसी एक दवा के बाजार में उपलब्ध सभी ब्रांडों के दाम के औसत में 16 फीसदी जोड़कर उस दवा का अधिकतम मूल्य तय कर दिया जाता है.

जबकि दवा के दाम उसके लागत मूल्य पर तय किया जाना चाहिये. किसी दवा के निर्माण में लगने वाली लागत के बाद उस पर निर्माता, दवा का मार्केटिंग करने वाली कंपनी, थोक व खुदरा दवा विक्रेता के मार्जिन के साथ उसकी परिवहन लागत जोड़कर उसका खुदरा मूल्य तय किया जाना चाहिये. तभी जाकर जनता को सस्ते में दवा मिल सकती है अन्यथा अन्य सभी कोशिश नाकाम रहेगी.

मूल मुद्दा है दवाओं पर कठोर मूल्य नियंत्रण लागू किया जाये. क्या यह आवाज़ नीति निर्धारकों तक पहुंच पायेगी?

*लेखक स्वास्थ्य मामलों के जानकार हैं.

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