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भाषाई अस्मितावाद और अन्धराष्ट्रवादी नंगेपन

इंदरजीत अरविंद | फेसबुक : भाषाई अस्मितावाद के चिथड़ों से पंजाबी ‘बिगनेशन शावनिज़्म’ और अन्धराष्ट्रवादी नंगेपन को नहीं ढंका जा सकता है! भाषाई अस्मितावाद की फ़टी पल्ली में बंधी ‘बिगनेशन शावनिज़्म’ और अन्धराष्ट्रवाद की गठरी आज खुल गयी है. इससे गठरी का सारा आड़-कबाड़ सड़क पर बिखर गया है.

जी हाँ, बात फ़िर से भाषाई अस्मितावाद और “महापंजाब” के प्रति नॉस्टेल्जिक झुकाव रखने वाली प्रवृत्ति के बारे में ही हो रही है. जिस चीज़ से ये कतिपय कॉमरेड शुरू से ही मुकर रहे थे अब खुद ही उसकी जुगाली करने लगे हैं और वह भी बेहद भोंडे रूप में. भाषाई अस्मितावाद की बिलान्ध भर कतरन से अन्धराष्ट्रवाद की लाश से भभकती दुर्गन्ध को भला रोकते भी कब तक!

पंजाब में भाषाई अस्मितावाद और अन्धराष्ट्रवादी नॉस्टैल्जिये का झण्डा बुलन्द किये हुए कतिपय कॉमरेडों ने अपनी पत्रिका के फ़ेसबुक पेज़ से एक पोस्ट साझा की है. इस पोस्ट में 1947 में हुए पंजाब के बँटवारे की तुलना जर्मनी, वियतनाम और कोरिया के बँटवारे से की गयी है. पोस्ट के अन्त में कहा गया है कि यदि जर्मनी और वियतनाम एक हो सकते हैं तो फ़िर पंजाब (हिन्दुस्तानी पंजाब और पाकिस्तानी पंजाब) भी एक हो सकता है.

उक्त पोस्ट में एक जगह पंजाबी कौम के साथ बंगाली कौम का भी नाम ले लिया गया है. जर्मनी, वियतनाम और कोरिया से पंजाब की तुलना पर बाद में आते हैं किन्तु पहले ही बता दें कि हम पंजाब और बंगाल के एकीकरण के समर्थक हैं और इतना ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के ही पुनः एकीकरण के पक्ष में हैं. पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ही तमाम राष्ट्रीयताओं का एक साझा समाजवादी संघ बने यह हमारी हार्दिक कामना है.

लेकिन यह होगा कैसे? इसलिए असल सवाल मौजूदा ढाँचे को बदलने का है. बहरहाल इस पूरी पोस्ट के सन्दर्भ में हम दो अहम नुक्तों पर अपनी बात रखना चाहेंगे.

पहली बात, हम पाठकों को याद दिला दें कि शुरू से ही हमारे तर्कों का प्रमुख निशाना महापंजाब के प्रति अनैतिहासिक नॉस्टैल्जिया और पंजाबी ‘बिगनेशन शावनिज़्म’ की प्रवृत्ति रही है.

जवाब में कतिपय कॉमरेड और इनके फ़ेसबुकिया वकील शुरू से ही सवाल दागते हुए कहते रहे हैं कि महापंजाब माँग कौन रहा है? कि महापंजाब की बात पर तो ख़ालिस्तानी अलगाववादी भी ठहाका मारकर हँस देंगे, कि हम तो दूसरों की ही वीडियो शेयर कर रहे हैं और शेयर करने का मतलब वीडियो में प्रस्तुत विचारों का मानना तो नहीं होता?!

इस तरह की तमाम उलटबांसियाँ करते हुए पहले इन्होंने 1947 के विभाजन को केवल पंजाब के साथ हुई त्रासदी करार दिया जबकि यह त्रासदी तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के साथ ही घटित हुई थी. क्या भारत की बजाय अकेले पंजाब को ही देखने को अन्धराष्ट्रवाद नहीं कहा जायेगा?

फ़िर इन्होंने भाषा के आधार पर ‘पंजाब पुनर्गठन एक्ट’ के तहत 1966 में हुए हरियाणा व हिमाचल के बँटवारे को अन्यायपूर्ण बताया, चण्डीगढ़ को हरियाणा-पंजाब की संयुक्त राजधानी बनाये जाने को राजधानी “छीन लिए जाने” के तौर पर धक्केशाही बताया. यह सच है कि 58 पंजाबी भाषी गाँवों को उजाड़कर चण्डीगढ़ बना है लेकिन इतिहास में हर गलती को पीछे जाकर दुरुस्त किया ही नहीं जा सकता है.

मिसाल के तौर पर इतिहास के एक दौर में यहूदियों को इज़राइल-फिलिस्तीन से जाना पड़ा था, तो इनके तर्क से तो 1948 में इज़राइल को फ़िर से “बसाना” और फिलिस्तीनियों को उजाड़ना सही होना चाहिए!? असल में इतिहास की गलतियों को दुरुस्त करने की यह पूरी सोच ही प्रतिक्रियावादी है.

कॉमरेडों! अतीत पर कौरी भावुकता से काम नहीं चलेगा बल्कि आपको बताना पड़ेगा कि समाधान क्या हो, रास्ता क्या हो और एजेण्डे में क्या हो. इस तरह से कभी 1966 के विभाजन पर तो कभी चण्डीगढ़ पर और अब भाषाई आधार पर दोबारा बँटवारे पर अटक जाने की प्रवृत्ति को पंजाबी ‘बिगनेशन शावनिज़्म’ नहीं कहा जायेगा तो फ़िर भला क्या कहा जायेगा?

हमने तुरन्त ही भाषाई आधार पर पुनर्विभाजन की प्रतिक्रियावादी माँग का विरोध किया था तथा पक्ष रखा था कि आज इस तरह के किसी भी विभाजन की माँग न तो सिरसा की पंजाबी भाषी जनता की है तथा न ही अबोहर और फाजिल्का व उन शहरों के आस-पास के 83 हिन्दीभाषी गाँवों की आबादी की है तथा न ही चण्डीगढ़ के वाशिन्दों की ही है.

ऐसी कोई भी माँग उठाना लोगों का असल मुद्दों-समस्याओं से ध्यान भटकाना होगा, अप्रत्यक्ष तौर पर शासक वर्ग की मदद करने के समान होगा, क्योंकि लोगों के लिए आज यह ज़िन्दा सवाल नहीं है बल्कि रोज़ी-रोज़गार-शिक्षा-चिकित्सा-महँगाई उनके लिए आज असल मुद्दे हैं. हमारी ठोस आपत्ति का जवाब दिए बगैर अपने बिगनेशन शावनिज़्म को छिपाते हुए इन कतिपय कॉमरेडों ने भाषाई अस्मितावाद की बीन बजानी शुरू कर दी.

लेकिन अब ये खुद ही दोनों पंजाबों (भारतीय और पाकिस्तानी) के एक होने की कामना कर रहे हैं ताकि एक बड़ा पंजाबी राज्य बने. हमारी यह जिज्ञासा है कि आपका शुरू से ही यही कहना था तो खुलकर कह ही दिया होता, फ़िर भाषाई अस्मितावाद का ता-ता-थैया करने की क्या आवश्यकता थी? फ़िर तो माँ बोली सम्मेलन नहीं बल्कि बाघा बॉर्डर पर महापंजाब सम्मेलन ही बुलाया होता!

मजेदार बात यह है कि बहस में इन्होंने हमारे ठोस सवालों का कोई जवाब नहीं दिया है. खुद पंजाबी ‘बिगनेशन शावनिज़्म’ के नगाड़े बजा रहे हैं तथा कार्यकर्ताओं को भाषाई अस्मितावाद के झुनझुने पकड़ा दिये गये हैं.

दूसरी बात, जर्मनी, वियतनाम और कोरिया के इतिहास के साथ पंजाब के इतिहास की कोई तुलना ही नहीं हो सकती. ऐसी तुलना कर लेने की कुव्वत से कतिपय कॉमरेडों के इतिहास के प्रति दिवालियेपन का ही पता चलता है.

पंजाब, जर्मनी, वियतनाम और कोरिया के इतिहास के प्रति अनभिज्ञ व्यक्ति ही इस तरह की तुलना कर सकता है. हमें या देश के किसी भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी और प्रगतिशील व्यक्ति को भला पंजाब के एक हो जाने से क्या आपत्ति हो सकती है. बल्कि हम तो यहाँ तक चाहते हैं कि पूरा भारतीय उपमहाद्वीप ही एक हो जाना चाहिए.

यहाँ पर यह समझने की बात है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के षड़यन्त्र का शिकार अकेला पंजाब हुआ है या फ़िर पूरा भारतीय उपमहाद्वीप? विडम्बना केवल पंजाब ने झेली है या पूरे देश ने? और एकीकरण सम्भव कैसे होगा?

पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का एकीकरण तभी सम्भव है जब समाजवादी क्रान्ति को अंजाम दिया जायेगा. जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के जनगण उठ खड़े होंगे और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद का जुआ उतार फेकेंगे केवल तभी तमाम राष्ट्रीयताओं के साझे संघ की स्थापना सम्भव है. भारतीय और पाकिस्तानी पूँजीवादी राज्यसत्ताओं के रहते किस प्रकार से पंजाब एक होगा?

कतिपय कॉमरेडों खाली थूक के बान्ध बनाने और हरियाणवी में कहें तो लट्ठ कै सोड़ बाँधने का कोई तुक नहीं है! क्या महापंजाब के नॉस्टैल्जिये और भाषाई अस्मितावाद की फड़फड़ी से ही पंजाब का एकीकरण हो जायेगा?

आपके इस रवैये को भोलापन नहीं बल्कि राजनीतिक दिवालियापन ही कहा जायेगा. बात आप दूसरों पर हँसने की कर रहे हैं जबकि आपके जुमले लोगों को आप पर हँसने के लिए निमन्त्रण दे रहे हैं. तरस आप दूसरों पर नहीं बल्कि खुद पर खाइये ताकि समय रहते सम्भला जा सके.

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