प्रसंगवश

‘कुछ’ के पास इतनी दौलत कैसे?

जेके कर
देश के चुनिंदा 84 लोगों के पास 16.90 लाख करोड़ की दौलत है. इस रकम का अंदाज आप इससे लगा सकते हैं कि नोटबंदी के दौरान 15.44 लाख करोड़ रुपयों के नोटों को अवैध घोषित किया गया था. जाहिर है कि देश के चुनिंदा लोगों के पास अकूत संपदा जमा है. इतना किसी को जीवन जीने के लिये नहीं लगता है फिर भी कोई भी इसे दान में नहीं देने वाला है. इससे जुड़ा सवाल है कि आखिरकार क्यों तथा कैसे देश-दुनिया के चुनिंदा लोगों के पास इतनी अकूत संपदा इकठ्ठा हो गई है.

इसके लिये हमें पीछे जाना पड़ेगा. यहां तक कि डार्विन के विकासवाद के चरम मनुष्य की उत्पत्ति से शुरुआत करनी पड़ेगी. वानर से नर बना था यह वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है. यह भी मान लिया गया है कि वानर से नर बनने में श्रम की निर्णायक भूमिका रही है. यदि वानर उस समय की यथास्थिति को मान लेते तो कभी उनका विकास मानव के रूप में न होता. शायद मानव ही एककोशीय जीव के विकास की चरम अवस्था है.

बात हो रही थी, अकूत संपदा के इकठ्ठा हो जाने की. इसकी शुरुआत वहां से करनी पड़ेगी जब मानव झुंड के रूप में रहा करते थे. शिकार करते थे, आपस में बांटकर खा लिया करते थे. इनमें से किसी के पास कोई अपनी कही जाने वाली संपदा नहीं थी सिवाय उन हथियारों के जिनसे शिकार किया जाता था. जिन्हें दरअसल, सामूहिक प्रयास से ही बनाया जाता था.

बाद के समय में इन मनुष्यों का झुंड शिकार के अलावा अन्य मानव के झुंडों से लड़ाई लड़ने लगा. लड़ाई में जीतने वाला हारने वालों के हथियार से लेकर अन्य सामूहिक स्वामित्व की चीजों पर कब्जा जमा लेता था. इसी के साथ हारने वालों को गुलाम बनाने की प्रथा का जन्म हुआ. जिनसे खुद काम न करके, दूसरे से करा लेने की प्रवृत्ति का जन्म हुआ. यह वह मुकाम था जब बिना शिकार किये खाने का मौका मिलने लगा.

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AN ECONOMY FOR THE 1%

इस बीच मानव समाज ने गोड़ाई खेती शुरु की तथा बाद में जोताई से भी खेती की जाने लगी. खेती के कारण मानव की घूमने की प्रवृत्ति पर कुछ हद तक लगाम लगा. लेकिन विकास के इस दौर में गुलामों से खेतों में काम कराया जाने लगा. अब गुलाम खेतों में काम करने वाले मेहनतकशों में तब्दील होने लगे थे.

धीरे-धीरे मानव ने वस्तु विनिमय के स्थान पर मुद्रा के माध्यम से विनिमय करना शुरु कर दिया. अब तक बहुमूल्य सोना, हीरा, चांदी का मोल समझ में आने लगा था. उन्हें जमा करके रखने से उसका भविष्य के लिये उपयोग होने लगा. जैसे ही वस्तुओं के विनिमय के बीच में मुद्रा का आभिर्भाव हुआ बाजार ने जन्म लेना शुरु कर दिया. बाजार, जहां पर मुद्रा के बल पर वस्तुओं का विनिमय किया जाता था. अब मानव समाज को समझ में आने लगा कि मुद्रा जमा करना सुरक्षित भविष्य तथा वर्तमान के ऐशो-आराम के लिये जरूरी है.

गुलाम प्रथा से खेती के लिये गुलाम बनाने की दौर के विकास के समय ऐसा लगा मानों दो समुदायों का टकराव मानव सभ्यता को खत्म कर देगा. इसे रोकने के लिये सामूहिक तौर पर बैठकर कुछ नियम बनाये गये, कुछ लोगों को व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी दी गई. इस तरह से मानव समाज की जरूरत ने राज्य की उत्पत्ति की.

हमने शुरुआत की थी कि क्यों तथा कैसे इतनी अधिक संपदा कुछ लोगों के पास जमा हो गई है. इस विषय पर जाने से पहले मानव समाज के विकास को समझना जरूरी था अन्यथा इस अति जटिल व्यवस्था को समझना आसान न होगा. बात हो रही थी बाजार की. उससे पहले वस्तुओं का विनिमय बिना मुद्रा के होता था. भला इस बात को कैसे तय किया जाता था कि मेरे इतने चावल के बदले तू इतना दूध या सब्जी दे. इस सामान के बदले उस सामान की इतनी मात्रा दे.

इसे तय किया जाता था किसी एक वस्तु को बनाने में लगे समय व श्रम से दूसरे वस्तु को बनाने में लगे समय व श्रम से. उदाहरण के तौर पर जितना कपड़ा एक दिन में बुना जा सकता था उसके बदले एक दिन में जितना बर्तन बनाया जा सकता था, वो बराबरी का विनिमय होता था. लेकिन बाद में मुद्रा के प्रवेश तथा कम काम करके ज्यादा हड़प जाने की प्रवृत्ति ने एक दूसरे से विनिमय के समय कम वस्तु के बदले ज्यादा वस्तु हासिल करने की हरकत की जाने लगी. इससे कुछ के पास दूसरों के ज्यादा वस्तु इकठ्ठा होने लगा. बाद में यही इकठ्ठा होते-होते राई का पहाड़ बन गया.

अब भी समझ में नहीं आया. चलिये अब सीधे-सीधे अर्थव्यवस्था के उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं. मसलन क्या आप 100 रुपये के कपास को 200 रुपये में बेच सकते हैं. हरगिज भी नहीं यह ठगी कहलायेगी. लेकिन इस 100 रुपये के कपास को एक मजदूर को 50 रुपये की रोजी देकर 200 रुपये के सूत में बदला जा सकता है. 200 रुपये के सूत को एक बुनकर को 200 रुपये देकर 500 रुपये के कपड़े में बदला जा सकता है. इस तरह से 100 रुपये के कपास को 500 रुपये के कपड़े में बदलकर बेचा जा सकता है. कपास से तन नहीं ढ़ंका जा सकता परन्तु कपड़े से ढ़ंका जा सकता है.

इस सरल प्रक्रिया को जब ध्यान से समझने की कोशिश करेंगे तो पता चलेगा कि सबसे पहले मजदूर को 50 रुपये की रोजी देकर उससे 50 रुपये का मुनाफा कमा लिया गया. उसके बाद बुनकर को 200 रुपये देकर उससे सूत से कपड़ा बुनवाकर 100 रुपये मुनाफा कमा लिया गया. इस तरह से 100 रुपये के कपास से बने कपड़े को 500 रुपये में बेचकर 150 रुपया मुनाफा कमा लिया गया. तर्क दिया जा सकता है कि कपास का पेड़ तो मेरा है, कपास को सूत में पिरोने का चरखा तो मेरा है, सूत को कपड़े में बदलने की मशीन भी मेरी है. इसलिये 150 रुपये मुझे मिलने ही चाहिये.

इसी समय मानव समाज के विकास के क्रम को देखते हुये पूछा जाना चाहिये कि तेरे पास कपास का पेड़ कहां से आया, चरखा कहां से आया तथा सूत से कपड़ा बनाने की मशीन कहां से आई. हमेशा से तो यह किसी एक का नहीं था. क्या उन्हें भी इसी तरह से नहीं बनाया गया है.

इस तरह से कामगारों के बल पर मुनाफा कमाया जाता है. यह एक सरल उदाहरण है. जिससे आसानी से समझा जा सकता है कि छोटे-छोटे मुनाफे कमाते-कमाते, उन्हें जमा करके-करते कुछ लोगों के पास दूसरों से ज्यादा संपदा इकठ्ठा हो गई है. जिसे ऑक्सफाम की 16 जनवरी को जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि किसके पास कितनी संपदा है. ऑक्सफाम की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर की दौलत का 50 फीसदी मात्र 1 फीसदी लोगों के पास है जबकि भारत में 1 फीसदी लोगों के पास 58 फीसदी दौलत जमा है.

आरोप लगाये जा सकते हैं कि उपरोक्त गणित को समझाने के लिये कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का सहारा लिया गया है. चलो हम मान लेते हैं कि ऐसा किया गया है. लेकिन क्या आपके पास कोई और जरिया है जिससे दुनिया को समझाया सके कि आखिर क्यों कुछ लोगों के पास इतनी संपदा इकठ्ठा हो गई है कि दुनिया की अधिसंख्य आबादी के पास अपना कहने को कुछ नहीं है.

(उपरोक्त लेख में विचार लेखक के निजी हैं)

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