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आरक्षित तबकों में मलाईदार सोच

सुनील कुमार
केन्द्र सरकार में आदिवासी मामलों के मंत्री जुएल उरांव ने पहले राष्ट्रीय जनजातीय उद्यमी सम्मेलन में अपनी बिरादरी के आदिवासियों के सामने विजय माल्या की तारीफ करते हुए कहा कि वह एक स्मार्ट आदमी है. उसने कुछ अक्लमंदों को काम पर रखा, फिर बैंकों, नेताओं, और सरकार को अपने प्रभाव में लिया. इसके बाद मंत्रीजी का कहना था कि आपको ऐसा स्मार्ट बनने से कौन रोकता है? आदिवासियों से किसने कहा है कि सिस्टम पर अपना असर मत दिखाओ? किसने कहा है कि बैंकों को प्रभावित मत करो.

जाहिर है कि आदिवासी समुदाय से निकला हुआ यह नेता अब सत्ता में इतने ऊपर तक पहुंच गया है कि अब उसे विजय माल्या में कोई खामी न दिखकर, महज खूबियां दिख रही हैं. यह पहला मौका नहीं है जब किसी आरक्षित या कमजोर तबके से निकले हुए किसी नेता से अपनी ही बिरादरी की बेइज्जती करने वाली ऐसी बातें सुनने मिल रही हों, जो कि जाहिर तौर पर उस बिरादरी के हितों के खिलाफ है, और उसकी साख को भी खराब करती हैं. दरअसल आरक्षित या कमजोर तबकों से, आरक्षण या विशेष संरक्षण का फायदा पाकर जो लोग ऊपर पहुंचते हैं, सत्ता की ताकत उनकी चाल और उनके चलन को बदलकर रख देती है. सत्ता के शिखर पर पहुंची हुई महिलाएं, महिला आरक्षण का नाम लेना भूल जाती हैं, वहां पहुंचे हुए दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक अपने तबकों की फिक्र उसी वक्त करते हैं जब उन्हें नोट या वोट पाने के लिए अपने खुद के इन तबकों का होने का सुबूत देना होता है. लेकिन इससे परे ऐसे तकरीबन तमाम लोग उस वर्गहित से परे हो जाते हैं, जिस वर्ग से वे आते हैं.

हिन्दुस्तान में बाकी दुनिया के आदिवासियों की तरह, सबसे सरल, सबसे सीधे, और सबसे ईमानदार लोग इसी तबके में हैं. ये मोटेतौर पर कुदरत के अधिक करीब रहते हैं, और कुदरत से ईमानदारी सीखते हैं. इन्हीं में से जब कुछ लोग राजधानियों में पहुंच जाते हैं, और महलों से मकानों में रहने लगते हैं, और एक मौसम के लिए बचाने की अपनी आदिवासी-आदत से परे हटकर जब सौ पीढिय़ों के लायक बचाने लगते हैं, तो वे उस कुदरती ईमानदारी से दूर भी हो जाते हैं. इसलिए एक आदिवासी मंत्री को अपने दूसरे आदिवासी लोगों को यह सिखाने में कुछ बुरा नहीं लगा कि उन्हें विजय माल्या जैसा बनना चाहिए, और सरकार से लेकर बैंकों तक पर अपना असर बनाना चाहिए.

आरक्षित तबकों के भीतर मलाईदार तबका आरक्षण के फायदों से बाहर करने की वकालत करते हमें लंबा वक्त हो गया. इसकी एक वजह तो यह है कि आरक्षित तबकों का सारा फायदा उन तबकों के भीतर के इस छोटे से मलाईदार तबके के ही काम का रह गया है, क्योंकि वे अपने तबके के भीतर मुकाबले के लिए अधिक तैयार रहते हैं, और उनकी बेहतर तैयारी उन्हें अपने ही तबके के अधिक जरूरतमंद, अधिक कमजोर लोगों को पीछे छोडऩे की ताकत दे देती है. ऐसे में जिस मकसद से आरक्षित तबके को आरक्षण का हक दिया गया था, वह हक अब आरक्षित तबके के भीतर, उसके अपने गैरमलाईदार तबके को ही मिलना चाहिए. मलाईदार जिंदगी जीते हुए लोगों की सोच इसी किस्म से बदलती है. राजनीति में, सरकार या न्यायपालिका में पहुंची हुई महिलाएं, हिन्दुस्तान की आम महिलाओं की तरह की तकलीफों से ऊपर उठ जाती हैं, और धीरे-धीरे उन्हें यह अहसास भी नहीं रहता कि इस देश में एक वक्त महिला आरक्षण का नारा उन्होंने भी लगाया था.

देश में आदिवासी उद्यमियों या दलित उद्यमियों के अलग से संगठन बनने में कुछ बुरा नहीं है क्योंकि उस तबके की अपनी दिक्कतें हो सकती हैं जो कि उद्योग-व्यापार के बाकी आम संगठनों के बीच चर्चा में न सुलझ सकें. इसलिए सरकारी कर्मचारियों के भीतर ही आरक्षित तबकों के कर्मचारियों के अलग-अलग संगठन होते हैं, और इस देश में दलितों की वर्तमान राजनीति के सबसे बड़े नेता-जन्मदाता कांशीराम ने आरक्षित-कर्मचारियों के बीच से ही अपना आंदोलन शुरू किया था. लेकिन उनका शुरू किया हुआ आंदोलन आज उनकी सबसे करीबी राजनीतिक सहयोगी रही, और आज देश की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती तक पहुंचा है जो कि अपने आपमें अरबों की अनुपातहीन दौलत की वजह से खबरों और अदालतों दोनों में हैं. वर्गचरित्र से उबरकर, और वर्गहित को महज जुमले की तरह इस्तेमाल करके वर्गों के नेता अपना एक अलग ही वर्ग बना लेते हैं, और उन्हें विजय माल्या की मिसालों में कुछ गलत नहीं लगता है.

हम अपने अधिक आसपास भी देखते हैं तो दलित-आदिवासी तबकों के जो नेता आरक्षण का फायदा पाकर सत्ता की ताकत, और संपन्नता, इन दोनों के आसमान तक पहुंचे हुए हैं, और अब इस आसमान को चीरकर संपन्नता के अंतरिक्ष तक पहुंचने की कोशिश में लगे हैं, वे पार्टी और सरकार के भीतर तो अपने वर्ग का होने के हक का दावा करते हैं, लेकिन अपने वर्ग के लिए कुछ नहीं करते. ऐसे तबकों से बने हुए मंत्री अपने इलाकों में, अपने समुदायों के बीच कुछ करने के बजाय ठेकों में उलझे रहते हैं, तबादला उद्योग में लगे रहते हैं, और अपने तबकों का होने का फायदा पाते हुए पार्टी और सरकार के सामने कोई विकल्प भी नहीं छोड़ते हैं.

ऐसे लोगों के लिए यह बात कोई अटपटी नहीं रह जाती कि वे विजय माल्या या हर्षद मेहता जैसे लोगों की मिसालें दें. लोगों को याद होगा कि पी.वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे और हर्षद मेहता नाम का एक शेयर दलाल शेयर मार्केट की समंदरी लहरों पर उसी तरह राज करता था जिस तरह एक काबिल सर्फर सचमुच की लहरों पर लहराता है. तब उस वक्त लाखों करोड़ के शेयर घोटाले का भांडा फूटने के ठीक पहले तक इस देश में कई लोग यह वकालत करने लगे थे कि हर्षद मेहता जैसा व्यक्ति इस देश का वित्त मंत्री होना चाहिए. इसलिए आज जब एक आदिवासी केन्द्रीय मंत्री विजय माल्या की मिसाल देता है, और अपने आदिवासी उद्यमियों को वैसा होने का फतवा देता है, तो वह यह भी साबित करता है कि वह किस तरह अब अपने वर्ग का नहीं रह गया है.

खुद दलित या आदिवासी, या किसी और आरक्षित तबके की अपनी भलाई के लिए यह जरूरी है कि उसमें आरक्षण का किसी भी किस्म का फायदा महज एक पीढ़ी को मिलना चाहिए, और मलाईदार तबके का न होने तक ही मिलना चाहिए. दूसरी-तीसरी और चौथी पीढ़ी को आरक्षण का फायदा देना, या कि करोड़पति हो जाने पर भी आरक्षण का फायदा देना यह बड़ा नुकसान करता है कि उन तबकों के सचमुच के जरूरतमंद लोगों की कोई पहुंच आरक्षण के फायदे तक हो ही नहीं पाती. सतह पर तैरता हुआ मलाईदार तबका एक फौलादी परत सरीखा हो जाता है, जिसे चीरकर कोई कमजोर हाथ ऊपर नहीं आ पाते. इस केन्द्रीय मंत्री की जगह पहली बार सांसद बना हुआ कोई केंद्रीय मंत्री होता, तो उसे माल्या में इतनी खूबियां दिखना शुरू नहीं हुई होतीं.
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शाम के अखबार छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.

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