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निजता है मौलिक अधिकार-सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली | संवाददाता : सु्प्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार माना है. अदालत ने ने 1954 और 1962 के फैसलों को पलटते हुये गुरुवार को यह फैसला सुनाया. जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस जे चेलामेश्वर, जस्टिस एआर बोबडे, जस्टिस आर के अग्रवाल, जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन, जस्टिस अभय मनोगर स्प्रे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अब्दुल नजीर की नौ जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा कि राइट टु प्राइवेसी मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है. राइट टू प्राइवेसी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आती है. अब लोगों की निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी. हालांकि आधार को योजनाओं से जोड़ने पर सुनवाई आधार बेंच करेगी. इसमें 5 जज होंगे.

मामले के याचिकाकर्ता और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना है और कहा है कि ये अनुच्छेद 21 के तहत आता है. आधार कार्ड को लेकर कोर्ट ने कोई फैसला नहीं लिया है. भूषण ने बताया कि अगर सरकार रेलवे, एयरलाइन रिजर्वेशन के लिए भी जानकारी मांगती है तो ऐसी स्थिति में नागरिक की निजता का अधिकार माना जाएगा.

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में जजों ने कहा कि अगर मैं अपनी पत्नी के साथ बेडरूम में हूं तो यह ‘प्राइवेसी’ का हिस्सा है. ऐसे में पुलिस मेरे बैडरूम में नहीं घुस सकती. हालांकि अगर मैं बच्चों को स्कूल भेजता हूं तो ये ‘प्राइवेसी’ के तहत नहीं आता है, क्योंकि यह ‘राइट टु एजूकेशन’ का मामला है.

कोर्ट ने कहा कि आप बैंक को अपनी जानकारी देते हैं. मेडिकल इंशोयरेंस और लोन के लिए अपना डाटा देते हैं. यह सब कानून द्वारा संचालित होता है. यहां बात अधिकार की नहीं है. आज डिजिटल जमाने में डाटा प्रोटेक्शन बड़ा मुद्दा है. सरकार को डाटा प्रोटेक्शन के लिए कानून लाने का अधिकार है. सरकार द्वारा गोपनीयता भंग करना एक बात है, लेकिन उदाहरण के तौर पर टैक्सी एग्रीगेटर द्वारा आपका दिया डाटा आपके ही खिलाफ इस्तेमाल कर ले प्राइसिंग आदि में वो उतना ही खतरनाक है.

अदालत ने कहा कि मैं जज के तौर पर बाजार जाता हूं और आप वकील के तौर पर मॉल जाते हैं. टैक्सी एग्रीगेटर इस सूचना का इस्तेमाल करते हैं. ‘राइट टु प्राइवेसी’ भी अपने आप में संपूर्ण नहीं है. सरकार को डाटा प्रोटेक्शन के लिए कानून लाने का अधिकार है. राइट टु प्राइवेसी भी अपने आप में संपूर्ण नहीं है. सरकार को वाजिब प्रतिबंध लगाने से रोका भी नहीं जा सकता है. क्या केंद्र के पास आधार के डेटा को प्रोटेक्ट करने के लिए कोई मजबूत मैकेनिज्म है? विचार करने की बात यह है कि मेरे टेलीफोन या ईमेल को सर्विस प्रोवाइडर्स के साथ शेयर क्यों किया जाए?

अदालत ने सख्ती बररते हुये कहा कि मेरे टेलिफोन पर कॉल आती हैं तो विज्ञापन भी आते हैं. तो मेरा मोबाइल नंबर सर्विस प्रोवाइडर्स से क्यों शेयर किया जाना चाहिए. क्या केंद्र सरकार के पास डेटा प्रोटेक्ट करने के लिए ठोस सिस्टम है? सरकार के पास डेटा को संरक्षण करने लिए ठोस मैकेनिज्म होना चाहिए.

सरकार को सलाह देते हुये अदालत ने कहा कि हम जानते हैं कि सरकार कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार का डाटा जमा कर रहा है, लेकिन यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि डाटा सुरक्षित रहे. क्या कोर्ट प्राइवेसी की व्याख्या कर सकता है? आप यही कैटलॉग नहीं बना सकते कि किन तत्वों से मिलकर प्राइवेसी बनती है. प्राइवेसी का आकार इतना बड़ा है कि ये हर मुद्दे में शामिल हैं. अगर हम प्राइवेसी को सूचीबद्ध करने का प्रयास करेंगे तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे. अगर ‘राइट टु प्राइवेसी’ संविधान के प्रावधान में है तो इसे कहां ढूढ़ें? हमारे साथ दिक्कत यह है कि क्या इसे एक से ज्यादा संविधान के प्रावधानों में तलाशा जाए? संविधान की अनुछेद 21 में इसे तलाशना कम कष्टकारी होगा, लेकिन अगर ये आर्टिकल 19 में है तो हमें यह ढूंढना होगा कि किस केस के हिसाब ये कहां सही ठहरता है?

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