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योगी आदित्यनाथ और कबीरधाम का मर्म

सुदीप ठाकुर | फेसबुक: शहरों के नाम बदलने की मुहिम में जुटे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अब अपना नाम बदलकर अपना पुराना नाम अजय सिंह बिष्ट रख लेना चाहिए. हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को मिली पराजय का एक संदेश यह भी है, जहाँ उनकी पार्टी ने उन्हें नए हिंदू ह्रदय सम्राट की तरह पेश किया था.

इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद को अयोध्या में बदलने वाले योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी को इन तीनों राज्यों में किसी शहर का नाम बदलने का मौका फिलहाल तो मिलने से रहा. तेलंगाना और मिजोरम में तो वैसे भी उनका कोई दावा नहीं था.

छत्तीसगढ़ में अभूतपूर्व पराजय का सामना करने वाले डाक्टर रमन सिंह ने लगता है योगी को अपने गृह नगर कबीरधाम के बारे में कुछ बताया नहीं, जहाँ से इस चुनाव में विजयी मोहम्मद अकबर ने कांग्रेस में सर्वाधिक मतों के अंतर से जीत दर्ज की है. ध्यान रहे कबीरधाम को पहले कवर्धा के नाम से जाना जाता था. तो क्या यह कबीर की महिमा है! योगी शायद इसे कभी समझ नहीं पाएंगे.

दरअसल यह इस पूरे देश का मिजाज है, जिसे योगी बदलना चाहते हैं. पर इन रमन सिंह को क्या हो गया था. उन्हें नामांकन पत्र दाखिल करने तक के लिए योगी की जरूरत पड गई थी. आम छत्तीसगढिया को यह अजीब लगा था जब रमन सिंह को परिवार सहित उसने योगी के चरणों में गिरते देखा था.

इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का एक बड़ा संदेश यह भी है कि मतदाताओं ने योगी मार्का हिंदुत्व को पूरी तरह से खारिज किया है . वह पूरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं. इन पांच राज्यों में भाजपाऔर संघ परिवार ने मोदी के बाद योगी को सबसे बड़े स्टार प्रचारक की तरह पेश किया था. इन राज्यों में उनकी पचहत्तर से अधिक सभाएं और रैलियां करवाई गई.

साथ साथ संघ परिवार अयोध्या से लेकर सबरीमाला तक हिंदुत्व के मुद्दे को हवा देता रहा. यह योगी ही थे जिन्होंने बजरंग बली और अली जैसे मेटाफार का इस्तेमाल कर विभाजनकारी राजनीति के औजारो को धार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

इस पराजय के बाद क्या संघ परिवार और भाजपा 2019 के आसन्न लोकसभा चुनाव में योगी पर फिर दांव लगाएंगे? उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में होने वाले कुंभ और अयोध्या में मंदिर निर्माण की संघ की गतिविधियों से फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि योगी को रोका जाएगा. वैसे भी योगी संघ परिवार का एक मुखौटा ही तो हैं.

अपने आपको सांस्कृतिक संगठन बताने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी प्रच्छन्न गतिविधियों में है तो पूरी तरह से राजनीतिक ही. 14 म ई 2014 को उसने स्वतंत्र भारत के इतिहास के लिए नया बेस ईयर घोषित कर रखा है. हिंदुत्व अखंड भारत की उसकी परिकल्पना की धुरी है.

पांच राज्यों के नतीजों खासतौर से हिंदी पट्टी ने इस हिंदुत्व की राजनीति को खारिज किया है. वास्तव में योगी को भले ही संघ परिवार अगले मोदी के रूप में पेश करने की कोशिश की है, पर वह पूरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं.

उनके मुख्यमंत्री रहते भाजपा उत्तर प्रदेश में दो महत्वपूर्ण लोकसभा सीटो के उप चुनाव हार चुकी है, जिनमें गोरखपुर की सीट भी शामिल है, जहाँ से वह पांच बार सांसद रहे. गुजरात से लेकर कर्नाटक तक वह स्टार प्रचारक रहे, लेकिन गुजरात में मुश्किल से मिली भाजपा की जीत में उनका शायद ही कोई योगदान हो.

योगी का चरण स्पर्श करने वाले रमन सिंह बडी मुश्किल से राजनांदगांव की अपनी सीट बचा सके. अब उनके पास फुर्सत है और यदि वह राजनांदगांव के दिग्विजय कालेज परिसर जाकर मुक्तिबोध की प्रतिमा के सामने खडे हों, जिसका अनावरण खुद उन्होंने किया था, तो शायद मुक्तिबोध उन से पूछ बैठे पार्टनर तुम्हारा पालिटिक्स क्या है?

यही संघ परिवार के लिए इन चुनावों का मतलब है.

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