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व्यापमं: 56 मौतों का इंतजार?

भोपाल | बादल सरोज: और 5 जुलाई को जबलपुर के दूसरे डीन भी संदेहास्पद हालातों में मरे पाये गए. इनसे पहले वाले डीन डॉ साकल्ले जब मरे थे तब इन्ही डॉ. मिश्रा ने आशंका जताई थी – जांच की मांग की थी. दो दिन पहले ही उन्होंने कोई दो सौ नाम भी एसआईटी को सौंपे थे. अब खुद उनकी मोत की जांच की माग हो रही है. सोमवार को मुरैना की एक युवती सागर में मरी मिली. इस तरह व्यापमं मौतें हो गयीं 45 !! सरकारी प्रवक्ता की कही केवल 25 भी मान लें, तो भी 25 भी सिर्फ “केवल” नहीं होती. इन मौतों से बेंजामिन फ्रैंकलिन की याद आयी. उन्होंने कहा था कि कुछ लोग 25 बरस की उम्र में मर जाते हैं, मगर 75 साल तक दफ़न होने का इन्तजार करते रहते हैं. मरने वालो में अधिकाँश इसी उम्र के हैं- वे दफ़न होने के लिए 75 साल तक इंतज़ार न करें- यह कोशिश उन्हें करनी है जो ज़िंदा बच गए हैं.

व्यापमं घोटाला और उसकी मौतें एक अभूतपूर्व और असाधारण स्थिति है. दोषी और दोषियों का फैसला होगा कि नहीं होगा, होगा तो कब होगा !! यह भविष्य के गर्भ में छुपी बात है. मगर ज़िंदगियाँ, जिन्हे मृत्यु ने हर लिया, भविष्य का इन्तजार नहीं कर सकतीं. वे आज ही हिसाब मांगती हैं.

निष्पक्ष जांच की हर मांग को राजनीति कहकर ठुकरा रहे शिवराज सिंह चौहान शायद भूल गए हैं कि ज़िंदगियाँ राजनीति की मोहताज नहीं होती- इसके उलट राजनीति जरूर ज़िन्दगियों पर निर्भर करती है. मौत की राजनीति करने वालों को छोड़ इस सच को सभी जानते हैं.

यहां चिंता की वजह व्यापमंं घोटाला भर नहीं है- उससे बड़ी चिंता की बात है इसे छुपाने और दबाने और इस को या उसको बचाने के आपराधिक षड़यंत्र !! शिखर पर बैठे शासकों को शेक्सपीयर का यह कथन याद दिलाना जरूरी है कि सीजर की बीबी को सारे संदेहों से परे होना चाहिए. यह बात खुद सीजर पर भी उतनी ही लागू होती है. यहां तो जूलियस सीजर का पूरा कुनबा ही रंगा-पुता बैठा है. मंत्री-संत्री-भाजपाई-संघी- कौन है जो इस घोटाले में शामिल नहीं है. यहां सवाल उन दस-बीस हजार भर्तियों का नहीं है जो ले-दे कर की गयीं. इस काण्ड ने क़ानून व्यवस्था और न्याय करोड़ों नागरिकों के विश्वास को आहत किया है. तंत्र का काम है अपने प्रति यकीन की बहाली करना. यह इसलिए और जरूरी है क्योंकि इतिहास व्यक्तियों को तो भुला देता है- ज़ख्मो को याद रखता है. ज़ख़्मी प्रणाली लंगड़ाती शासन व्यवस्था और असंतुष्ट और झक्की समाज को जन्मती है.

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था कि क़ानून और व्यवस्था न्याय के राज को स्थापित करने लिए होते हैं. जब वे ऐसा करने में विफल हो जाते हैं तो एक ऐसे बेहूदा तरीके से बने बाँध में तब्दील हो जाते जो सामाजिक प्रगति के प्रवाह को अवरुद्ध कर देता है. मध्यप्रदेश ऐसी ही गलाजत भरी स्थिति में पहुँच गया लगता है. 45 मौतों के बाद भी लगता है 56 इंच की छाती वाले नेता की राज्य सरकार 56 गर्दनों के कट गिरने के इंतज़ार में हैं.

व्यापमं ने बहुत लंबा इंतज़ार करवाया है. नतीजों के इन्तजार में लोग ऊबने लगे हैं. मौतों की श्रृंखला ने उनका धीरज खत्म कर दिया है. जरूरत इन्साफ होने भर की नहीं है, बेधड़क और सच्चा इन्साफ हो रहा है ऐसा दिखने की भी है. मगर ऐसा होता नजर नहीं आ रहा.

शिवराज सिंह और उनके मंत्रियों की अहंकारी भाषा ऊब और झल्लाहट पैदा कर रही है. मुख्य विपक्ष कांग्रेस भी अखबारी बयानबाजी से आगे नहीं जा रही है. यूं भी भ्रष्टाचार की लड़ाई में कांग्रेस का मुस्तैद रहना उससे कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करना है.

वामदलों ने व्यापमं मौतों को एक महामारी करार दिया है और प्रदेश को इस मौतों की महामारी से बचाने के लिए 8 जुलाई को मध्य प्रदेश में और 22 जुलाई को देश भर में आंदोलन का एलान किया है. इसकी तीन मांगों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह तत्काल इस्तीफा दें, मामले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच हो, इसी के साथ एसआईटी और एसटीएफ की भी जांच कर पता लगाया जाए कि उन्होंने कितने सबूत मिटाकर किन किन को बचाया है, शामिल हैं.

जब न्याय के बाकी रास्ते अवरुध्द हो जाते हैं तब जनता ही सबसे बड़ा न्यायालय होती है.

(लेखक मध्य प्रदेश माकपा के सचिव तथा सेन्ट्रल कमेटी के सदस्य हैं.)

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