न्याय के बाद बजती तालियां
नथमल शर्मा
देश की सबसे बड़ी अदालत से न्याय हुआ. चार अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई गई. न्यायालय में जिस समय या जैसे ही सजा सुनाई गई वहां उपस्थित लोगों ने तालियां बजाते हुए इस फैसले का स्वागत किया. सिसकती मां ने भी जरा सुकून भरी सांस लेते हुए अपनी लाडली को याद किया.
करीब पांच बरस पहले हुई थी यह दर्दनाक घटना. देश का दिल कही जाने वाली राजधानी दिल्ली में एक युवती फिल्म देखकर रात साढ़े नौ बजे अपने घर लौट रही थी. अपने मित्र के साथ वह सिटी बस में बैठी. और वह छोटा-सा सफर जीवन का आखिरी सफ़र साबित हुआ. चलती बस में उसके साथ बलात्कार किया गया. उसके मित्र से मारपीट की गई. युवती के साथ हैवानियत की सीमा से बाहर जाकर दुष्कर्म किया गया. और मृत समझकर छोड़ दिया गया. राजधानी में हुए इस अपराध ने लोगों में गुस्सा भर दिया. मृतका को मीडिया ने निर्भया नाम दिया.
निर्भया को न्याय दिलाने और उसके हत्यारों को सजा दिलाने की मांग को लेकर देश भर में प्रदर्शन हुए. महिला संगठन भी आगे आए. युवक-युवतियां साथ चलते हुए अपने अपने शहर,गांव में चौक चौराहों पर आए. मोमबत्तियाँ जलाई गई. कुछ दिनों तक ये गुस्सा,ये पूरा मामला मीडिया में छाया रहा. चैनलों पर बहस भी खूब हुई. लोग खासकर लड़कियों के माता-पिता डर गए. कानून – व्यवस्था पर सवाल उठाए जाने लगे. इस चौतरफा दबाव का असर यह हुआ कि पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया. फिर इनका अपराध साबित हो गया.
अदालत से फैसला भी हो गया. चार अपराधियों को फांसी की सजा दी गई. पांचवें की उम्र कम थी. उसे किशोर न्यायालय भेजा गया. फांसी की सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मामला गया. वहां से कल फैसला आ गया. चारों की फांसी की सजा बरकरार रखी गई. न्यायमूर्ति ने कहा कि यह रेयरेस्ट आफ रेयर मामला है. अपराधियों ने दरिंदगी की सीमा तक पार कर दी. ऐसे मामले में फांसी की सजा जरूरी है.
जिस समय फांसी की सजा बरकरार रखने का फैसला सुनाया गया. लोगों ने तालियां बजाई. ऐसा करके फैसले का स्वागत ही किया. घटना को हुए करीब पांच बरस हो रहे हैं. निर्भया या उनके परिजनों को पांच बरस बाद न्याय मिला ऐसा कहा जा रहा है. इन दो हजार दिन में वे तिल – तिल कर जीते रहे. जीने की चाह या न्याय मिलने की उम्मीद लिए वे एक एक दिन बिताते रहे. ऐसे हालात में एक दिन भी काटना बहुत कठिन होता है. इन्होने दो हजार दिन किस तरह बिताए होंगे ? इ
सकी कल्पना करना आसान नहीं है. निर्भया के मामले में फैसला सुनकर जो लोग तालियां बजा रहे थे उनमें से किसी ने किसी चौक पर मोमबत्ती जलाई थी या नहीं ये तो पता नहीं. हो सकता है प्रदर्शन करते हुए गुस्सा जाहिर किया होगा. लेकिन इस मामले के बाद ऐसा नहीं है कि देश में किसी युवती के साथ अन्याय हुआ ही नहीं. कोई बलात्कार की शिकार हुई ही नहीं. निर्भया के बाद सैकड़ों मामले हुए और इस ” बात ” के छपते तक कुछ और हो जाएंगे.
लेकिन निर्भया के बाद चौराहों पर मोमबत्तियाँ नहीं जलती. शहरों,गांवों में गोष्ठयां नहीं होती. प्रदर्शन तो अब खैर होते ही नहीं. ऐसे सवालों पर राजनीतिक दलों ने जाने कब से किनारा कर लिया है. उन्हें गाय,गोबर,मंदिर,बीफ,शराब ,माल्या, घोटालों ,मंत्री की डिग्री,मोदी के सूट में ज्यादा संभावनाएं दिखती हैं. किसी और बहुत सारी निर्भया का बेमौत मर जाना राजनीति के सवाल नहीं है. सामाजिक सवाल है. समाज में रोज मर मरकर जी रहे लोग इस पर सवाल करे. करते रहें. निर्भया और बहुत सारी बहनें अन्याय की शिकार होती रहें. थोड़ी बहुत बहस के बाद हम अपने अपने कामों में जुट जाएंगे. आखिर क्यों और कितना लड़ें ? और भी तो काम है.
महिलाओं के साथ अन्याय होना कोई आज की बात तो है नहीं. सदियों से होता आ रहा है. आज कुछ हल्ला,कुछ प्रतिरोध ज्यादा हो रहा है. फिर भी दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ दिखते मामले में न्याय मिलने में पांच बरस लग जाते हैं. और इस पर भी हम तालियां बजाते हैं. शायद सैकड़ों बरसों की गुलामी का असर अब तक हमारी रगों में है. हमने शायद मान लिया है कि किसी ना किसी दिन न्याय तो मिल ही जायेगा. जैसे हम मानते हैं कि हमारे शहर की सीवरेज किसी ना किसी दिन तो पूरी हो ही जाएगी.
आज सरकार शराब बेच रही है तो क्या हुआ किसी ना किसी दिन अपने छत्तीसगढ़ में भी शराबबंदी लागू हो ही जाएगी. आज नहीं मिल रहा है तो क्या हुआ किसी ना किसी दिन किसानों को उनकी फसल के वाजिब दाम मिल ही जाएंगे. हम ये सब मानकर चलते हैं. इसलिए गुस्सा नहीं आता अब. वो ग़ालिब की बात है ना- पहले आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी/ अब किसी बात पर नहीं आती. इसे ऐसे ले लेवें कि अब किसी बात पर गुस्सा नहीं आता. राग दरबारी का लंगड़ बिना फाइल पर वजन रखे अपनी जमीन के कागज़ात की नकल लेना चाहता है पर जीवन भर नहीं ले पाता. ये सब जानते समझते हुए भी अब नहीं आता गुस्सा.
देश भर में महिलाएँ आज भी वैसे ही प्रताड़ित हो रही है. खाप पंचायतें सिर्फ हरियाणा में ही नहीं है,हमारे दिल – दिमाग में है. और हम दिल से नहीं देना चाहते उन्हें उनका हक जो आधी दुनिया की मालकिन हैं. इसीलिए हम तालियां बजा रहे हैं. तालियां तो वे लोग भी बजाते पर पर दुआएं देते हैं. हमारी तालियों में वह भी नहीं.
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इवनिंग टाइम्स बिलासपुर के संपादक हैं.
मोहतरम नथमल भैय्या, आपकी लेखनी पे बचपन से मुतास्सिर होने वाले “हम” इस ताज़े विषय पे लिखे आपके इस लेख को पढ़कर मुतास्सिर होना तो दूर, तकलीफ़ में घिर गए. वो इसलिए कि ये लेखनी पत्रकारिता का स्कूल कहे जाने वाले देशबंधु अख़बार के तेज़तर्रार, स्पष्टवादी, निडर और सामयिक घटनाओं को एकसाथ पिरोकर, पाठक को अंगारों पे घसीट लेने वाले संपादक के नहीं लगे, बल्कि आसपास घटती घटनाओं से प्रभावित “कुछ” पढ़लिख गए, अधकचरी समझ के जागरूक ”आमआदमी” की लेखनी सी लगी हमें…
हमारे लिए ये ताज्जुब से भर देने वाली बात है कि “निर्भया उर्फ़ सुश्री पांडे” पे दिए गए फ़ैसले पे लिखते हुए आपके सचेतन मस्तिष्क की “सुई” उसीदिन, लगभग एक ही समय पे आए, मुम्बई हाईकोर्ट के ऐसे ही एक बर्बर,जघन्य सामूहिक बलात्कार/ हत्याकांड (बिलक़ीस बानो) केस में दिए गए फैसले की तरफ़ नहीं घूम सकी ? उसपर लिखना तो दूर “15 बरस” तक बिना डरे, बिना झुके, राज्य प्रायोजित जनसंहार /सामूहिक/बलात्कार की इकलौती गवाह का हल्का सा इशारा/ज़िक्र भी आपकी क़लम से नहीं निकल सका. ( ये भी हो सकता है “बिलक़ीस बानो” पे आया फ़ैसला आपकी नज़र में “निर्भया पांडे” की तरह अहम् न हो-शायद)
मुआफ़ी के साथ पूछना चाहते हैं आपसे, क्या ये, बढ़ती उम्र के तक़ाज़े का महज़ इत्तेफ़ाक़ है या फ़िर …… !!! ख़ैर……. मुर्दा पूजक देश में जीवट “बिलक़ीस बानो” का ज़िंदा रहना कोई ख़बर नहीं बन सकता, उसे “निर्भया पांडे” की तरह मर ही जाना चाहिए….
मोहतरमा जुलेखा जबीं जी, एक लेखक से आपकी क्या क्या उम्मीद है. लेखक ने एक विषय पर विचार व्यक्त किये. आपकी ही तरह कोई दूसरा भी यही फतवा जारी कर सकता है कि आपने बिलकिस पर लिखा लेकिन आपकी आंखें फूट गई थीं कि आपने निर्भया पर लिखा. शर्मनाक है कि आपको निर्भया ‘पांडे’ नजर आती है. एक महिला नजर नहीं आती. आपसे भी पूछा जा सकता है कि इस पर आपको बस्तर की आदिवासी महिलायें नजर नहीं आईं, केवल मुस्लिम बिल्किस नजर आईं? अपनी फलक को विस्तार दें जुलेखा जी.