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प्रणब एक रहस्य छोड़ आए…

भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का आरएसएस मुख्यालय में जाना और वहां भाषण देना बड़ी हलचल पैदा कर गया है. जैसे ही यह खबर आई कि प्रणब ने न्यौता कुबूल कर लिया है, और वे नागपुर जाने वाले हैं, उनकी पार्टी रही कांग्रेस के लोगों ने, उनकी बेटी ने, और बहुत से संघविरोधी लोगों ने सार्वजनिक अपील की कि वे इस कार्यक्रम में न जाएं. संघ के आलोचकों ने खुली जुबान में कहा कि उनका वहां जाना संघ को एक सामाजिक वैधानिकता दे देगा जिससे बाद में बाकी जिंदगी उसका बेजा इस्तेमाल किया जाएगा. ऐसी तमाम बातों के जवाब में प्रणब मुखर्जी की तरफ से महज इतना कहा गया कि उन्हें जो कहना होगा वे नागपुर जाकर कहेंगे.

इसके बाद प्रणब संघ मुख्यालय गए, वहां उन्होंने भाषण दिया, और वे आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेडगेवार की प्रतिमा पर माला चढ़ाने के साथ-साथ उन्हें भारतमाता का महान सपूत भी करार देकर आए. विजिटर बुक में लिखी गई उनकी इस टिप्पणी को लेकर लोगों ने हेडगेवार की कही हुई पुरानी दर्ज बातों को गिनाते हुए प्रणब से पूछा कि क्या ऐसे इतिहास के साथ भी वे हेडगेवार को भारतमाता का सपूत लिख रहे हैं? इतिहास में यह दर्ज है कि हेडगेवार ने भारतीय मुस्लिमों को विदेशी सांप कहा था और उन्हें राष्ट्रविरोधी करार दिया था. इसके अलावा भी उनकी कही दूसरी कई बातें इतिहास में एक आक्रामक मुस्लिम विरोध की शक्ल में दर्ज हैं. इसलिए प्रणब से यह सवाल उनके भाषण के मुकाबले उनकी लिखी टिप्पणी पर अधिक किया गया.

प्रणब के संघ में जाने का मुद्दा एक बुनियादी मुद्दा है, और देश के सबसे वरिष्ठ हिन्दी पत्रकारों में से एक, ओम थानवी ने भी सोशल मीडिया पर उनके इस फैसले में कोई बुराई नहीं देखी, और कहा कि महत्वपूर्ण यह रहा कि प्रणब मुखर्जी वहां क्या बोलकर आए. ओम थानवी की सोच खुलकर साम्प्रदायिकता-विरोधी है, और वे जनसत्ता के अपने वक्त से ही संघ के खिलाफ लिखते आए हैं. उन्होंने फेसबुक पर लिखा- प्रणब मुखर्जी का भाषण मुझे ठीक लगा. संघ के मंच से संघ को संविधान, सहिष्णुता, वास्तविक देशभक्ति, राष्ट्रवाद, आदि की जिम्मेदारियों का पाठ पढ़ा आए. वह भी नेहरू का जिक्र करते हुए. कांग्रेसी यूं ही आसमान सिर पर उठाए हुए थे.

लेकिन इसके साथ उन्होंने अलग से यह भी लिखा- प्रणब बाबू गए, बोल आए, पर यह समझना मुश्किल है कि वहां वे हेडगेवार पर क्यों कर लट्टू हुए. और संघ के झंडे, उनके गान के सम्मान में खड़ा होना भी अखरा. वहां न तिरंगा था, न राष्ट्रगान. हर फिल्म से पहले जो लोग हमसे राष्ट्रभक्ति का प्रमाण चाहते थे, खुद क्यों उससे आंख चुराते हैं? अब दूसरों की बात से अलग कुछ अपनी बात पर आऊं, तो बरसों पहले, शायद सन् 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बनने के भी पहले रायपुर में भाजपा के छात्र संगठन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का एक प्रशिक्षण शिविर हुआ था. इसके समापन समारोह में मुझे भी एक अखबारनवीस होने के नाते भाषण देने बुलाया गया था. उस कार्यक्रम में हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज भी वक्ता थे, और उनका भाषण बस यूं ही था. लेकिन दूसरे वक्ता उस वक्त संघ और भाजपा में बने हुए, और हमेशा से ही मुखर और चर्चित रहे गोविंदाचार्य थे. जब मैंने इस न्यौते को मंजूर किया तो वामपंथी मित्रों, कांग्रेसी नेताओं, और साम्प्रदायिकता-विरोधी लोगों ने हैरानी जाहिर की, और वे हक्का-बक्का भी थे. कुछ लोगों ने यह भी पूछ लिया था कि क्या मैं वहां संघ की पोशाक, हाफपैंट में जाऊंगा, या पहनकर आऊंगा. मजा तो तब आया जब हिन्दूवादी सोच के इस संगठन के कार्यक्रम में सैकड़ों प्रशिक्षुओं के पीछे बिना बुलाए हुए भी कई संघ-विरोधी पहुंचकर सुनने को खड़े थे.

कार्यक्रम हुआ और संविधान संशोधन की जरूरत जैसे विषय पर गोविंदाचार्य ने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अपनी जानी-पहचानी सोच एक लंबे भाषण में सामने रखी. सुनने वाले तकरीबन सारे ही उनकी सोच के ही थे, इसलिए वे छा गए थे. लेकिन इसके बाद आखिर में जब मेरी बारी आई, तो मुझे बाबरी मस्जिद गिराने वालों के मुंह से अब संविधान सुनते हुए जो लगा, उसे उस वक्त के आज से भी बहुत अधिक आक्रामक तेवरों के साथ मैंने करीब पौन घंटे तक कहा. मंच और माईक से हमेशा ही परहेज करने की वजह से बोलने की अधिक आदत रही नहीं, लेकिन फिर भी संविधान से आस्था को ऊपर बताने वाले जब संविधान की बात कर रहे थे, चाहे बदलने के लिए ही, तो उस पर मुझे अपने तेवर दिखाने का एक अच्छा मौका मिला, और असहमत विचारधारा की सभा इस भाषण के लिए बेहतर जगह थी.

मेरा यह मानना रहा है कि इतवार को किसी चर्च में जाकर प्रार्थना को जुटे हुए लोगों को ईसाई बनाने की कोशिश एक निरर्थक बात होती है. अगर ईसाई बनाने की कोशिश करनी है तो वह गैरईसाईयों के बीच ही की जानी चाहिए. मुस्लिम बनाने की कोशिश होनी है, तो वह गैरमुस्लिमों के बीच जाकर होनी चाहिए. इसी तरह अगर मुझे गोविंदाचार्य या विद्यार्थी परिषद की सोच के खिलाफ कुछ कहना हो, तो उनके बीच ही जाकर कहना बेहतर है.

इस सोच के मुताबिक मुझे प्रणब मुखर्जी का संघ में जाना बुरा नहीं लगा, और यह उनका अपना सोचना भी है कि वे कहां जाना चाहते हैं, क्या कहना चाहते हैं, और वही उन्होंने किया. कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय अपनी बेटी की इस चेतावनी को भी उन्होंने अनसुना कर दिया कि उनकी इस उदारता का संघ और दूसरे लोग बेजा इस्तेमाल करेंगे, और उनकी मौजूदगी को संघ की विचारधारा के समर्थन की तरह प्रचारित करेंगे.

मेरा ख्याल है कि एक जिंदा लोकतंत्र में लोगों को एक दूसरे से बात करते हुए डरना नहीं चाहिए. हमखयालों के साथ तो भजन-कीर्तन ही हो सकता है, अगर विचार-विमर्श करना हो, तर्क-वितर्क करना हो, तो असहमत लोगों के बीच ही यह मुमकिन है. और प्रणब ने संघ के कार्यक्रम में जाकर वहां संघ की सोच से ठीक अलग, और ठीक उल्टी सोच का ही पूरा भाषण दिया, और यह भाषण उनके खिलाफ या संघ की तारीफ में इस्तेमाल नहीं हो सकता. जहां तक सोशल मीडिया पर प्रणब के नाम से कई बातें तैर रही हैं जो कि उन्होंने संघ मुख्यालय में कही नहीं हैं, तो यह तो आज गांधी से लेकर भगत सिंह तक के नाम से फैलाई जा रही हैं, और एक उदार और आजाद, पूरी तरह बेकाबू और गैरजिम्मेदार सोशल मीडिया के राज में ऐसी हरकतों से बचा भी नहीं जा सकता, फिर चाहे प्रणब संघ में न भी गए होते.

अब एक सवाल फिर भी बचे रह जाता है कि अगर प्रणब इस कार्यक्रम में न जाते तो क्या बिगड़ जाता? इस सवाल को लेकर कुछ कड़़वे संभावित जवाब सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं, जो कि सौ फीसदी सही हो सकते हैं, और सौ फीसदी गलत भी हो सकते हैं. कुछ लोगों ने लिखा है कि प्रणब मुखर्जी पूरी जिंदगी कांग्रेस के मंत्री रहते हुए रिलायंस उद्योग समूह पर मेहरबानी करने वाले बने रहे, और आज भी मुकेश अंबानी की दखल से, उनके अनुरोध पर प्रणब मुखर्जी ने संघ का न्यौता माना. यह बात अगर पूरी तरह सच है, तो भी इसमें कोई हैरानी नहीं है क्योंकि अंबानी जैसे उद्योगपतियों को न कभी कांग्रेस से परहेज रहता, न संघ से. उनके लिए जिसके असर से सरकारी नीतियां बदलाई जा सकती हैं, वही सबसे अच्छे होते हैं. इसलिए आज की एक दूसरी चर्चा को भी अनसुना नहीं करना चाहिए कि अगले किसी चुनाव के बाद अगर कोई गठबंधन सरकार बनती है, तो उसमें प्रधानमंत्री पद के लिए अंबानी की पसंद प्रणब मुखर्जी रह सकते हैं. अभी न सूत है, न कपास, इसलिए प्रणब या अंबानी पर लट्ठमलट्ठ ठीक नहीं है, लेकिन ऐसी चर्चा भी सोशल मीडिया पर है.

अब एक आखिरी सवाल अनसुलझा बच जाता है कि प्रणब जिस कांग्रेसी विचारधारा में पूरी जिंदगी गुजार चुके हैं, उसमें रहते हुए उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि संघ-संस्थापक हेडगेवार की मुस्लिमों सहित कई दूसरे मामलों पर कैसी सोच थी. ऐसे में उन्हें भारतमाता का महान सपूत लिखकर प्रणब ने क्या साबित किया है, यह रहस्य शायद अकेले उन्हीं के भीतर है. उन्होंने खुद होकर ऐसा क्यों किया, इसे वे खुद ही बता सकते हैं, और कोई भी नहीं. फिलहाल उनके फैसले से सहमति और असहमति दोनों हमेशा जारी रहेंगे. प्रणब की संघ-यात्रा को इस हिसाब से भी देखना चाहिए कि भारत सहित पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में असहमत लोगों के बीच भी बातचीत हमेशा ही होते रही है, और जरूरी भी मानी जाती रही है. हिन्दुस्तान में तो सरकारों ने भी बहुत से उग्रवादी और आतंकवादी संगठनों तक से बातचीत की है.

आज के इस कॉलम का अंत एक दूसरे लेखक के लिखे लेख के अंत के साथ करना ठीक है. संघ के एक कटु आलोचक, और लगातार लिखने वाले प्राध्यापक राम पुनियानी ने इस बारे में लिखे लेख का अंत इस बात पर किया है- आरएसएस के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होने के लिए राजी होकर मुखर्जी ने एक अत्यंत जोखिमभरा काम किया है. या तो वे आरएसएस के हिन्दू राष्ट्रवाद को स्वीकार्यता देंगे, या उन्हें यह चुनौती स्वीकार करनी होगी कि वे संघ को उसकी विघटनकारी विचारधारा को त्यागने के लिए कहें, और उसे उस राह पर चलने के लिए प्रेरित करें जो गांधी और नेहरू ने दिखाई थी, और जो हम धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत की ओर ले जाएगी.

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